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________________ योगाश्रव जीव या अजीव मोहनीय कर्म के दो भेद है- चारित्रमोहनीय, दर्शनमोहनीय। चारित्र मोहनीय के उदय से जीव सावध कार्यों में संलग्न हो जाता है। सावध कार्य योगाश्रव है। आश्रव जीव का परिणाम हैं। अत: योगाश्रव भी जीव है, यह सहजसिद्ध है। योगाश्रव में यदि अशुभयोग का ही ग्रहण हो और वही आश्रव होता तो अशुभयोग निरोध को संवर कहा जाता, किन्तु ऐसा कहीं उल्लेख नहीं। सर्वत्र-योग निरोध को ही संवर कहा गया है। इसका तात्पर्य है योगाश्रव में शुभ-अशुभ दोनों योगों का समावेश है।10 तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के समय में एक मत यह भी रहा कि तीन योगों के अतिरिक्त चौथा योग कार्मण भी हैं, जो सर्वथा भिन्न है। योगाश्रव में यही आता है, प्रथम तीन नहीं। आचार्य भिक्षु ने चौथे योग की मान्यता को मिथ्या सिद्ध किया। उन्होंने कहा- पुण्य के कर्ता तीनों योग निरवद्य हैं। पाप का उपार्जन करने वाले योग सावध हैं। यौगिक प्रवृत्ति आत्म-प्रदेशों की चंचलता है। व्यक्ति में जब आत्म-शक्ति, बल, और पराक्रम का विस्फोट होता है तब आत्म प्रदेशों में कंपन होता है, नाम कर्म उसमें सहयोगी बनता है। वही मूलत: योग है। इसके अलावा, चौथे योग की धारणा तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है। आचार्य भिक्षु के समय में एक प्रश्न उठा-शुभ योग संवर है और पांचों चारित्र भी संवर है। क्या शुभ योग को चारित्र कहा जा सकता है ? आचार्य भिक्षु ने कहा- यह जैन मान्यता से विपरीत है। शुभयोग और शुभयोग-संवर भिन्न है। शुभयोग चल दशा, जबकि चारित्र स्थिर दशा है। चारित्र चारित्रावरणीय कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से प्राप्त होता है। यदि शुभयोग संवर है तो तेरहवें गुणस्थान में मन, वचन आदि की प्रवृत्ति को रोकने का निर्देश है। संवर को रोकने की क्या अपेक्षा है। यदि यथाख्यात चारित्र भी शुभयोग संवर है तो चौदहवें गुणस्थान में अयोगी सिद्ध कैसे होगा। अत: शुभयोग और चारित्र को एक नहीं माना जा सकता। क्रिया और आश्रव आत्मा में अनन्त वीर्य, शक्ति या सामर्थ्य है। यह शुद्ध आत्मिक वीर्य होता है। आत्मा और शरीर दोनों के साहचर्य से उत्पन्न वीर्य क्रिया का रूप होता है। इस क्रिया के द्वारा होने वाले कंपन के साथ जब बाहरी कर्म पुद्गलों का योग होता है और उनमें परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती है, तब बंधन होता है। इस प्रक्रिया को आश्रव कहा जाता है।11 क्रिया और अन्तक्रिया 227
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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