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ध्रुवोदया-जिनका उदय व्यवच्छेद काल तक कभी भी विच्छिन्न नहीं होता है। अध्रुवोदया- जिनका उदय विच्छिन्न हो जाता है।83
आचार्य वीरसेन ने कर्मों के उदय और उदीरणा को विपाक कहा है।84 आचार्य पूज्यपाद85 और अकलंक देव 6 के अनुसार विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक का नाम विपाक है। आचार्य हरिभद्र 7 आचार्य अभयदेव ने वृत्ति में विपाक का अर्थ पुण्यपाप रूप कर्म का फल किया है।
ग्यारहवां अंग (शास्त्र) विपाक सूत्र है। उसमें शुभ-अशुभ कर्मों के विपाक का दिग्दर्शन है। विपाक सूत्र के दो विभाग हैं- सुख-विपाक, दु:ख-विपाक।
सुखविपाक-सुखविपाक में सुबाहुकुमार आदि दस अध्ययनों में शुभ कर्मों के विपाक की चर्चा की गई है।
दुःखविपाक-दुःखविपाक में मृगालोढ़ा आदि दस अध्ययनों में पाप कर्म के विपाक का सांगोपांग चित्रण है। साथ ही प्रत्येक अध्ययन में पुनर्जन्म की सोदाहरण व्याख्या है। कर्मों का विपाक सहेतुक और निर्हेतुक उभय रूप है। किसी बाह्य निमित्त के अभाव में भी क्रोध वेदनीय पुद्गलों के तीव्र विपाक से अकारण क्रोध आ जाता है, वह निर्हेतुक उदय है।89
स्वाभाविक फल-कर्मफल की प्राप्ति स्वाभाविक रूप से निम्नोक्त तीन कारण से होती है
गति हेतुक उदय-नरक गति में असातवेदनीय का उदय तीव्र होता है। यह गति हेतुक विपाकोदय है।
स्थिति हेतुक उदय- सर्वोत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व-मोह का तीव्र उदय होता है। यह स्थिति हेतुक विपाकोदय है।
भवहेतुक उदय- दर्शनावरण का संबंध सभी प्राणियों से है। निद्रा मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों को आती है, देव-नारक को नहीं, यह भव हेतुक विपाकोदय है।
इस प्रकार गति, स्थिति और भव के निमित्त से कई कर्मों का स्वत: विपाकोदय हो जाता है।
क्रिया और पुनर्जन्म
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