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नहीं की। ये सब क्रियाएं पूर्वाभ्यास का ही परिणाम है।25 जिस प्रकार एक युवक का शरीर शिशु की उत्तरवर्ती अवस्था है। उसी प्रकार शिशु का शरीर पूर्वजन्म की उत्तरवर्ती अवस्था है।26 यदि इसे स्वीकार न किया जाये तो पूर्वजन्म में भुक्त और अनुभूत का स्मरण न होने से सद्य:जात शिशु में भयादि प्रवृत्तियां संभव नहीं है। इससे सिद्ध है कि पुनर्जन्म की सत्ता है।
राग-द्वेष की प्रवृत्ति- प्राणियों में सांसारिक विषयों के प्रति राग - द्वेषात्मक प्रवृत्ति का होना भी पुनर्जन्म की सिद्धि का सूचक है। ___ जीवन स्तर-विभिन्न जीवों का शरीर, रूप, आयु आदि समान नहीं होते और न ही उनके भोगादि के सुख -साधन ही समान होते हैं। सबका जीवन स्तर भिन्न-भिन्न होता है। जीवों में व्याप्त विषमता किसी अदृश्य कारण की ओर संकेत करती है।27 वह दृश्य कारण पूर्वकृत कर्म है जिसे भोगने के लिये दूसरा जन्म लेना पड़ता है।
आत्मा का नित्यत्व- भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा को नित्य माना है। मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। आत्मा नित्य होने से स्पष्ट है कि वह कर्मानुसार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करती है। दूसरे शरीर का धारण ही पुनर्जन्म है।
प्रत्यभिज्ञान–प्रत्यक्ष और स्मृति का संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञा है। इसमें अहसास होता है कि मैं वही हूं या अमुक वस्तु वही है। इससे पुनर्जन्म सिद्ध होता है। जैन दर्शन के अनुसार देवों के वर्गीकरण में एक प्रकार के देव व्यन्तर कहलाते हैं। जिनमें यक्ष, राक्षस, भूतादि आते हैं। व्यंतर देव प्राय: यह कहते हुए सुने जाते हैं कि 'मैं वही हूं, जो पहले अमुक था। यदि पुनर्जन्म नहीं है तो उन्हें इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान संभव नहीं हो सकता।
पूर्वभव-स्मरण- नारक जीवों के दुःखों का वर्णन करते हुए पूज्यपाद ने कहापूर्वभव के स्मरण से उनका वैर दृढ़तर हो जाता है। जिससे वे कुत्ते, गीदड़ की तरह एक दूसरे का घात करने लगते हैं।
इन हेतुओं के अतिरिक्त और भी अनेक युक्तियों द्वारा पुनर्जन्म को प्रमाणित किया जाता है। परामनोविज्ञान में भी इस प्रकार के तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। कर्मवाद
और पुनर्जन्म प्रक्रिया के ज्ञान से जीव को नैतिक बनने की प्रेरणा ही नहीं मिलती बल्कि वह शुद्धात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील भी बन जाता है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया