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और गमन- इस प्रकार कर्म के पांच प्रकार बतलाएं हैं। गीता में भी कर्म को प्रवृतिरूप में स्वीकार किया है- वहां मनुष्य जो भी करता है या करने का आग्रह रखता है-वे सभी प्रवृत्तियां कर्म के अंतर्गत समाविष्ट की है।
बौद्ध दर्शन में चेतना को ही कर्म कहा है। चेतना के द्वारा व्यक्ति काया से, मन से, वाणी से कर्म करता है। इस प्रकार कर्म के समुत्थान या कारक को ही कर्म कहा गया है। आगे चेतना कर्म और चेतयित्वा कर्म की चर्चा भी मिलती है। चेतना कर्म से मतलब मानसिक कर्म, चेतयित्वा कर्म से वाचिक एवं कायिक कर्म है।71
जैनदर्शन में क्रिया का पर्यायवाची कर्म न होकर योग है। किन्तु विवक्षा भेद से प्रत्येक क्रिया कर्म है चाहे फिर वह मानसिक हो, वाचिक हो या कायिका जैन दर्शन में कर्म के हेतु, क्रिया और कर्म विपाक सभी को कर्म कहा है।
राजवार्तिक में 'कर्म शब्द कर्ता, कर्म और भाव तीनों रूपों में विवक्षानुसार परिग्रहीत है। कारणभूत परिणामों की विवक्षा में कर्तृधर्म का आरोप करने पर वही परिणाम स्वयं द्रव्य-भाव रूप कुशल कर्मों को करता है अत: वही कर्म है। आत्मा की प्रधानता में वही कर्ता होता है और वही कार्य कारण भी होता है। जिनके द्वारा किया जाएं वह कर्म हैं। साध्य-साधन भाव की विवक्षा न होने पर स्वरूप मात्र का कथन करने से क्रिया को भी कर्म कहते हैं। इस प्रकार अन्य कारकों की भी उपपत्ति की जा सकती है।72 कर्म सिद्धांत जैन- दर्शन का प्राण-तत्त्व है। उसके बिना जागतिक विचित्रता और अध्यात्म की व्याख्या नहीं की जा सकती।
क्रिया और कर्म एकार्थक भी है और भिन्नार्थक भी। कर्म शब्द जब क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब क्रिया और कर्म एकार्थक हो जाते हैं। किन्तु कर्म-सिद्धांत के
अन्तर्गत जब कर्म को सूक्ष्म भौतिक तत्त्व के रूप में व्याख्यायित किया जाता है तब वह क्रिया से भिन्न हो जाता है। भिन्न होते हुए भी क्रिया के अभाव में कर्मबंधन की संभावना नहीं होने से क्रिया कर्म की जनक सिद्ध होती है।
कर्म सिद्धांत में भी कर्म को भावकर्म और द्रव्यकर्म में विभक्त करके भावकर्म के अभाव में द्रव्य कर्म की संभावना को अस्वीकार करके उपर्युक्त तथ्य की ही पुष्टि की गई है। इसके अलावा क्रिया की भिन्नता के कारण कर्म-प्रकृत्तियां भी भिन्न - भिन्न हो जाती हैं। इन सभी संदर्भो में क्रिया और कर्म के अन्योन्य संबंध को समझना अत्यावश्यक है।
क्रिया और कर्म की स्वीकृति का मूलाधार आत्मा और जड़ - जगत् के स्वतंत्र
क्रिया और कर्म - सिद्धांत
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