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है, उसे अतिरिक्त स्राव करना पड़ता है। अतिरिक्त स्राव रक्त के साथ मिलकर नये रोगों को उत्पन्न करता है।
__ हमारा जीवन प्रवृत्ति बहुल है, जहां प्रवृत्ति होती है। वहां आवेग होता है। आवेगों के शोधन, परिवर्तन आदि की प्रक्रिया पर मानस-शास्त्र से विचार हुआ है। जैन कर्मशास्त्र में भी आवेश-परिशोधन की विस्तृत प्रक्रिया उपलब्ध है।
आज के मनोविज्ञान मन की हर समस्या पर अध्ययन कर रहे है। कर्म शास्त्रियों ने इस पर पहले से ही चिन्तन कर लिया था।
कर्मशास्त्र के संदर्भ में मनोविज्ञान को पढ़ा जाये तो अनेक गुत्थियां सुलझ सकती है। क्रिया और कर्म का परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। क्रिया और कर्म में सम्बन्ध
क्रिया और कर्म में कारण-कार्य (Casual Relationship) संबंध है। क्रिया की प्रतिक्रिया ही कर्म है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण अवश्यंभावी है। कारण ही कार्य का नियामक है। क्रिया कारण है, कर्म कार्य है। क्रिया के अभाव में कर्म संभव नहीं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रतिक्रिया का दूसरा नाम कर्म है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के शब्दों में- कर्म क्रिया का उपजीवी है।66(क) क्रियाकोश की भूमिका में उपाध्याय मुनि ने भी यही लिखा है-क्रिया कर्म की जननी है। तर्कशास्त्र के आधार पर दोनों में अन्वय-व्यतिरेक संबंध है।
दार्शनिक ग्रंथों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि कर्म शब्द अनेक अर्थों का संवाहक है। मुख्यतः उसके दो अर्थ हैं- (1) प्रवृत्ति या क्रिया (2) प्रवृत्तिजनित कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का संश्लेषण। जैन दर्शन दूसरे अर्थ में कर्म की चर्चा पर बल देता है। आचार्य तुलसी ने कर्म की परिभाषा करते हुए लिखा है- आत्मा की सत् एवं असत् प्रवृत्तियों के द्वारा आकृष्ट एवं कर्म रूप में परिणत होने योग्य पुद्गलों को कर्म कहा है।66(ख) अन्य दर्शनों में कर्म को प्रवृत्त्यात्मक माना गया हैं। वेदों से लेकर ब्राह्मण ग्रंथों तक में यज्ञ - याग, नित्य - नैमित्तिक क्रियाओं को कर्म कहा है।67 पौराणिक ग्रंथों में भी कर्म का तात्पर्य धार्मिक क्रिया है।68 यत् क्रियते तत् कर्म69 इस व्युत्पत्ति से किसी कार्य या व्यापार का नाम कर्म है।
वैयाकरणों ने कर्म कारक के अर्थ में 'कर्म शब्द का प्रयोग किया है।70 न्यायदर्शन में कर्म से तात्पर्य चलनात्मक क्रिया है। वहां उत्क्षेपणा, अवक्षेपणा, आकुंचन, प्रसारण, 156
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया