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यद्यपि पुण्य बंधन सत्क्रिया से होता है फिर भी इसे अध्यात्म में काम्य नहीं माना गया है। निर्जरा का आनुषंगिक फल पुण्य है। तपः साधना आदि आत्म शुद्धि के लक्ष्य से की जाती है, न कि पुण्य की कामना से। आत्म-शुद्धि के लक्ष्य को पाने में पुण्य साधकतम साधन नहीं है। आचार्य भिक्षु के अनुसार पुण्य की कामना करने का अर्थ हैभोगों की इच्छा करना और भोगेच्छा संसार का हेतु है। 38(ख) निर्जरा से पुण्य नहीं होता, वह निर्जरा का सहचर है। निर्जरा होती है वहां पुण्य बंध होता है-यह भी अनिवार्यता नहीं हैं। 14वें गुणस्थान में निर्जरा के समय पुण्य बंध का अभाव है। पुण्य के साथ निर्जरा की व्याप्ति है। निर्जरा के साथ पुण्य की व्याप्ति नहीं हैं।
जहां भी प्रवृत्ति, क्रिया, स्पंदन या एजन है, वहां बंध अवश्य है। जैन आगम इस विषय में स्पष्ट है। इनमें पुण्य सम्बन्धी जितने भी उल्लेख हैं, वे या तो पुण्य को निर्जरा का सहभावी सिद्ध करते हैं या उसे सत्प्रवृत्ति जन्य मानते हैं। एक भी स्थल ऐसा नहीं प्राप्त होता है जहां निर्जरा की उद्भावक सत्प्रवृत्ति के अभाव में पुण्य निष्पन्न हुआ हो। 39
कतिपय धार्मिक परम्पराएं पुण्य के लिये सत्क्रिया का समर्थन करती हैं। आचार्य भिक्षु ने आगमिक आधार पर इस मान्यता को स्वीकृति नहीं दी। उन्होंने कहा- पुण्य के लिये धर्म करना अनुचित है। पुण्य पौद्गलिक है, जो उनकी इच्छा करते हैं, वे मूढ़ हैं। वे धर्म-कर्म की भिन्नता को नहीं जानते।
श्रीमज्जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु के विचारों का समर्थन करते हुए लिखा- पुण्य की इच्छा मत करो। वह खुजली रोग जैसा है जो प्रारंभ में प्रिय लगता है किन्तु उसका परिणाम हितकर नहीं होता है। चक्रवर्ती पद की प्राप्ति आदि पुण्य के फल हैं जो निश्चय दृष्टि से दुःख रूप ही हैं।40 योगेन्दु लिखते हैं- वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दु:ख - परम्परा की ओर ढ़केल दे।
अतः आत्म-दर्शन की खोज में लीन व्यक्ति के लिये आत्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य की इच्छा करना वाञ्छनीय नहीं है। वे आगे कहते हैं- हमारे पुण्य का बंध न हो क्योंकि पुण्य से धन मिलता है। धन से मद होता है, मद से मति- मोह और मतिमोह से पाप होता है।42 यह क्रम उन्हीं पर लागू होता है जो पुण्य की कामना से धर्माचरण करते हैं। आत्म - शुद्धि की दृष्टि से धर्माराधना करनेवालों के भी पुण्य-बंध होता है किन्तु वह व्यक्ति को दिग्मूढ़ नहीं बनाता। वस्तुतः कर्म से कर्म का नाश नहीं होता। अकर्म से कर्म का नाश होता है।43
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया