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प्राचीन आचार्यों ने लेश्या सैद्धांतिक पक्ष पर अधिक प्रकाश डाला है। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में लेश्या का कर्म के साथ गहरा और सूक्ष्म विश्लेषण अधिक प्राप्त होता है।
कर्म का उपार्जन क्रिया के अनुसार होता है। अप्रशस्त लेश्या से साम्परायिक क्रिया का बंधन होता है, प्रशस्त लेश्या में ईर्यापथिक का। लेश्या की प्रशस्तताअप्रशस्तता, शुभता-अशुभता कषायों की तीव्रता-मंदता पर निर्भर है। किसी भी स्थिति के निर्माण में निमित्त और उपादान दोनों का योग होता है। लेश्या की शुभ-अशुभ अवधारणा के संदर्भ में पुण्य-पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा की तत्त्व मीमांसा समझनी अपेक्षित है। रंग विज्ञान और लेश्या
वैदिक मान्यतानुसार सम्पूर्ण सृष्टि पंच तत्त्वों से बनी है। इन तत्त्वों का प्राणियों के मन और कर्म पर प्रभाव है। रंग विज्ञान के अनुसार तत्त्वों के अपने-अपने विशिष्ट रंग है। उनके अभिमत से मूल में प्राण तत्त्व एक है। अणुओं की न्यूनाधिकता, कम्पन या वेग से उसके पांच विभाग किये गये हैं - | नाम वेग रंग ।
आकार पृथ्वी अल्पतर पीला
चतुष्कोण मधुर जल अल्प सफेद या बैंगनी ___ अर्ध चन्द्राकार कसैला तैजस् तीव्र लाल त्रिकोण
चटपटा वायु तीव्रतर नीला या आसमानी गोल
खट्टा आकाश तीव्रतम काला या नीलाभ अनेक बिन्दुगोल कड़वा
या आकार शून्य क्रिया और पुण्य
“कर्मणा बध्यते जंतु : यह उक्ति, क्रिया से कर्म बंधन होता है, इस तथ्य की ओर संकेत करती है किन्तु यह कथन भी सापेक्ष ही है । जैन दृष्टि में सभी क्रियाएं बंधन की हेतु नहीं मानी गई है। साम्परायिक क्रियाएं ही कर्म बंधन की कोटि में आती है, ईर्यापथिक नहीं। कर्मों के आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहा है। पांच आश्रवों में योग (क्रिया) आश्रव का क्रिया से सीधा सम्बन्ध है। योग के तीन स्रोत हैं- मन, वचन
स्वाद
क्रिया और कर्म - सिद्धांत
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