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है तथा उसका सूक्ष्म परिणमन अध्यवसाय है। कर्म के उदय और विलय से योगों में परिवर्तन होता रहता हैं, वैसे ही लेश्या में भी परिवर्तन होता है। लेश्या और योग का अविनाभावी सम्बन्ध मानने पर दो विकल्प सामने आते हैं- क्या लेश्या को योग वर्गणा के पुद्गल माना जाये या योग निमित्त कर्म रूप ? यदि पुद्गल कर्म रूप है तो घाती कर्म है या अघाती कर्म ? लेश्या घाती कर्म नहीं हो सकती। कारण, घाती कर्म नष्ट होने पर भी लेश्या प्राणी में पाई जाती हैं। यदि अघाती कर्म मानें तो अघाती कर्मों की विद्यमानता में लेश्या का होना अनिवार्य नहीं हैं। उदाहरणार्थ-चौदहवें गुणस्थान में लेश्या नहीं होती है जबकि अघाती कर्म हैं इसलिये योग वर्गणा के अन्तर्गत ही लेश्या को मानना उचित है। इस तथ्य की पुष्टि का आधार यह भी है कि केवली शुक्ललेश्या में रहकर ही अवशिष्ट अन्तर्मुहूर्त में योग का निरोध करते हैं। योग-निरोध के बाद ही अयोगीत्व और अलेश्यत्व गुण प्रकट होते हैं। इसके अलावा लेश्या में कषायों की वृद्धि होती है। योग में कषाय बढ़ाने का सामर्थ्य है। लेश्या और योग दोनों जीवोदय निष्पन्न परिणाम हैं। लेश्या मोहकर्म का उदय, क्षय या क्षयोपशम जनित है वहां योग नामकर्म का उदय और वीर्यान्तराय कर्म के क्षय, क्षयोपशम जनित है।18
लेश्या का अन्तिम चरण बाह्य जगत् व स्थूल शरीर पर योग रूप में होता है। बाहर से भीतर की यात्रा की दृष्टि से विचार करें तो योग की अन्तिम परिणति कर्म रूप में होती है। इसका मध्यवर्ती परिणाम लेश्या बनता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार- यह दोनों ही मध्यवर्ती कड़ी है।
__ योग प्रवृत्ति रूप है। उसके मुख्य घटक तत्त्व अविरति और कषाय हैं। कषाय से लेकर क्रियातंत्र तक की यात्रा में लेश्या एक कड़ी है। क्रियातंत्र के मुख्य घटक हैं- मन, वचन, काया। उनकी प्रवृत्ति से कर्म-बंधन होता है। प्रकृति, प्रदेशबंध में योग हेतुभूत हैं तो स्थिति और अनुभाग में निमित्त कषाय हैं। किन्तु कषाय, स्थिति और अनुभाग की तरतमता का निर्धारण लेश्या से होता है। लेश्या की कोई स्वतंत्र वर्गणा नहीं है अत: वह योग वर्गणा की अवान्तर वर्गणा मानी गई है। कर्म वर्गणा निष्पन्न लेश्या
कुछ आचार्यों के अभिमत से लेश्या का संबंध कर्म वर्गणा से है। कर्ममुक्त आत्मा अलेशी होता है। अत: लेश्या का निर्माण कर्म-वर्गणा से होता है। लेश्या कर्म रूप होकर भी कर्म से अलग है।
क्रिया और कर्म - सिद्धांत
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