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दशवैकालिक : कार्य-पद्धति जाता। परन्तु कार्य की दृष्टि से वह आवश्यक था। इस प्रकार लगभग दो घंटे तक कार्य चलता। साधु-साध्वियों को न्याय, दर्शन, व्याकरण आदि का अध्ययन कराने के पश्चात् आचार्यप्रवर पुनः पाठ-संशोधन के कार्य में लग जाते। लगभग एक-डेढ़ घंटे तक कार्य चलता। बीच-बीच में आगन्तुक सज्जन दर्शनार्थ आते। कभी-कभी उनसे बातचीत करनी पड़ती थी। कुछ देर उनसे बातचीत कर पुनः उसी कार्य में लग जाते । आचार्यप्रवर की उस बलवती निष्ठा से कार्यकर्ताओं में स्वयं स्फूर्ति और उत्साह रहता था। कभी-कभी गर्मी के कारण कार्य में मन नहीं लगता, परन्तु आचार्यप्रवर के पास जाते ही हम सभी कठिनाइयों को भूल जाते और उसी उत्साह से कार्य में जुट जाते। उपर्युक्त समय तो प्रायः निर्धारित था ही, परन्तु जब कभी अवकाश होता आचार्यप्रवर आगम-कार्य में लग जाते। रात्रि में पुनः चिन्तन चलता और पाठ को स्थिर कर लिया जाता। साथ-साथ शब्दकोश का कार्य भी चलता रहता था। जितना पाठ संशोधित होता उसके अनुसार शब्दों का चयन, अर्थ और संस्कृत-छाया का कार्य पूरा किया जाता था। इस दिशा में आचार्यप्रवर के आदेशानुसार मुनिश्री नथमलजी और मुनिश्री बुद्धमल्लजी निर्देशक के रूप में काम करते और लगभग आठ-दस साधु उनके निर्देशानुसार शब्दों का अर्थ, संस्कृत-छाया आदि करते। दो साधु शब्दानुक्रमणिका को मिलाने में जुट जाते। कई साधु निर्देशकों को कथित सामग्री जुटाने में लगे रहते। एक साधु संशोधित पाठ की नवीन प्रति तैयार करने में संलग्न रहता। इस प्रकार लगभग पन्द्रह साधु एक साथ काम में लगे रहते। दृश्य देखते ही बनता था। आचार्य हेमचन्द्र की 'चौरासी कलमों वाली' बात के प्रत्यक्षीकरण से मन प्रसन्न हो उठता था। एकमात्र आचार्यप्रवर का संरक्षण और मुनियों के सतत परिश्रम से दशवैकालिक का शब्दकोश लगभग एक महीने में तैयार हो गया। अर्थ करने में जहां-जहां कठिनाइयां आतीं वहां आचार्यप्रवर अपनी बहुश्रुतता से उसे सुलझाते और दिशा-निर्देश करते रहते। कहना चाहिए कि आचार्यप्रवर का अधिक समय आगम-कार्य में लगता। संघ के एकमात्र अधिनायक होने के कारण शासन की सारणा-वारणा का सारा भार उन्हीं पर रहता है। पूर्ण कुशलता से उस कार्य का निर्वाह करते हुए भी आप इतना समय आगम कार्य में लगाते हैं, यही इस कार्य की शीघ्र समाप्ति का पूर्व संकेत है।
कई व्यक्ति आचार्यप्रवर के पास आते और पूछते-'आचार्यजी! आगम