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के अन्तःकरण में एक सिहरन पैदा हुई और आगम - सम्पादन की कल्पना मूर्त हो उठी। कल्पना ने चिन्तन-मनन का रूप लिया और वह कल्पना क्रियान्विति में परिणत हो गई। उस समय किसी ने यह नहीं सोचा था कि कल्पना का यह स्फुलिंग महाज्योति का रूप लेगा, इतने विशालस्तर पर आगम- दोहन होगा । ज्यों-ज्यों चरण आगे बढ़ते गए कार्य का रूप सामने आता चला गया। इस अर्थ में मैं सौभाग्यशाली बना कि आचार्य तुलसी ने मुझे भी इस महायज्ञ में अपनी श्रमबूंदों को सार्थक करने का अलभ्य अवसर दिया। तब से लेकर आज तक मैं आगम- सम्पादन के कार्य के साथ जुड़ा रहा। मैं जो भी कार्य करता अथवा आगमविषयक कोई नई जानकारी प्राप्त करता, सुनता उसे निबन्धरूप में गुंफित कर लेता । इस प्रकार लिखते-लिखते सहज और अनायास ही अनेक निबन्धों का संकलन हो गया। उनमें कुछ निबन्ध ऐतिहासिक तथ्य को प्रकट करने वाले हैं और कुछ तथ्यपरक हैं । कुछेक आगम- सम्पादन में आने वाली समस्याओं से संबंधित हैं तो कुछ तत्कालीन सभ्यता-संस्कृति के परिचायक हैं । पहले ये निबन्ध 'शब्दों की वेदी अनुभव का दीप' नामक पुस्तक में संदृब्ध थे । कुछेक नए निबन्ध यत्र-तत्र पत्र-पत्रिकाओं में विकीर्ण थे । उन सबको एकाकार कर एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में एक नया आकार देने की योजना बनी। वह प्रस्तुत पुस्तक है- 'आगम- सम्पादन की यात्रा' ।
मैं गणाधिपति गुरुदेव तुलसी और प्रज्ञापुरुष आचार्य महाप्रज्ञ के महान् अवदानों और अनन्त उपकारों को आत्मसात् करता हुआ आचार्य महाश्रमण के प्रति श्रद्धाप्रणत हूं। उनके हस्तावलम्बन से मैंने बहुत कुछ पाया है और पा रहा हूं। मैं मुनि राजेन्द्रकुमारजी और मुनि जितेन्द्रकुमारजी के सहयोग को भी कभी नहीं भूल सकता। वे दोनों मेरी सेवा के साथ-साथ साहित्य - सम्पादन भी कर रहे हैं, यह मेरे लिए अन्तस्तोष का विषय है । मैं चाहता हूं कि दोनों मुनि इस दिशा में कीर्तिमान स्थापित करें। उन्होंने मेरे इस साहित्य कार्य को संभाल कर मुझे निर्धार बना दिया ।
प्रस्तुत पुस्तक आगम का कार्य करने वालों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी और अतीत के आलोक में सुधी पाठकों को नवीन दिशा प्रदान करेगी, इसी मंगलकामना के साथ
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आगममनीषी मुनि दुलहराज
तेरापंथ भवन, श्रीडूंगरगढ़ १ दिसम्बर २०१०