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अपनी बात
वि.सं. २००५ (सन् १९४८), कार्तिक कृष्णा अष्टमी। छापर में आचार्य तुलसी का पावस-प्रवास। यहां की पुण्यधरा पर मेरे जीवन में एक नया प्रभात उदित हुआ और मैं आचार्य तुलसी के करकमलों से दीक्षित हो गया। दीक्षा से पूर्व मेरे मन में एक संकल्प था कि मैं मुनिश्री नथमलजी की सेवा में रहं, पर यह मेरे हाथ में नहीं था। एक धर्मसंघ के अनुशास्ता होने के कारण इसका निर्णय आचार्यवर को ही करना था। मेरे अज्ञात मन की वह चाह पूज्यवर के पास कैसे पहुंची, मैं नहीं जानता। किन्तु उस समय मैं विस्मयातिरेक से अभिभूत हो गया जब आचार्यवर ने मुझे मुनिश्री नथमलजी के पास रहने का निर्देश दिया। जानेअनजाने मेरा वह मनोरथ सुफल हो गया और चित्त आनन्दविभोर हो गया।
दीक्षा के साथ ही मेरी विकास-यात्रा प्रारब्ध हो गई। गुरुदेव तुलसी का अनन्त उपकार और मुनिश्री नथमलजी की असीम करुणा ने मुझे विकास के अनेक आयाम प्रदान किए। मैंने बैंगलोर से इंगलिश मीडियम से दसवीं कक्षा पास की थी, इसलिए इंगलिश में बोलना और लिखना मेरे लिए सुगम था। जब कभी पूज्यपाद आचार्यवर के पास विदेशी अथवा अंग्रेजी विद्वान् आते तो आचार्यवर उनसे बात करने के लिए मुझे बुलाते । मैं इंगलिश से हिन्दी और हिन्दी से इंगलिश में अनुवाद का कार्य करता। इससे मेरा इंगलिश बोलने का अभ्यास बढ़ता चला गया। साथ में प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषा का भी अभ्यास चलता रहा।
वि.सं. २०११ की घटना है कि आचार्यवर पूना से नारायणगांव की ओर पाद-विहार कर रहे थे। एक दिन मध्यवर्ती गांव 'मंचर' में ठहरना हआ। वहां जिस मकान मालिक के यहां विराजना हुआ वहां काफी पत्र-पत्रिकाएं आई हुई थीं। आचार्यश्री उनमें बौद्धपत्रिका धर्मदूत का अवलोकन कर रहे थे। उसमें त्रिपिटकों के सम्पादन की एक विस्तृत योजना थी। उसे देखकर तत्काल आचार्यवर