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है कि यदि शारीरिक शक्ति को बढ़ाना है तो बाहुबली व हनुमान की पराक्रमशीलता का ध्यान करो, शरीर के भीतर शक्ति का संचार हो जायेगा। वैनतेय या गरुड़ का ध्यान करो गति में तीव्रता आ जायेगी। जैन दर्शन की भक्ति गुण संक्रमण की भक्ति है। हम वीतराग का ध्यान करें, वीतरागता के गुण हमारे में संक्रमित होने शुरू हो जायेंगे। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि अपने विजातीय तत्त्वों को दूर करने के लिए भक्ति बहुत अच्छा आलंबन है। इससे आत्मा का बहुत शोधन हो जाता है। आत्मा का जितना शोधन होता है उतनी अतीन्द्रिय ज्ञान की चेतना भी विकसित होती है।
अध्यात्म विकास का अलौकिक प्रयोग
आध्यात्मिक विकास के लिए चंदेसु निम्मलयरा इस अंतिम पद के चारों चरणों का यदि कोई जप करे तो श्वेत वर्ण की माला से अपने-अपने चैतन्य केन्द्रों पर मंत्रोच्चारण के साथ मन केन्द्रित करते हुए इक्कीस दिन तक प्रतिदिन नियमित तन्मयता से पांच माला जपे। अध्यात्म विकास का यह एक अलौकिक प्रयोग है। विज्ञानसिद्ध खोजो ने भी यह प्रमाणित किया है कि हमारे पैर के नखों में ५० प्रकार के रसायन हैं। हमारे एक बाल में सैंकड़ों प्रकार के रसायन हैं। एक बाल पूरे व्यक्तित्व की व्याख्या करने में समर्थ है। इसी रासायनिक परिवर्तन की प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लोगस्स का यह अंतिम पद्य व्यक्तित्व निर्माण और जीवन की सफलता का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मंत्र पद है।
घटना प्रसंग समणी अमितप्रज्ञा के जीवन का है। जलगांव मर्यादा महोत्सव के समय आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के निर्देशानुसार मर्यादा-महोत्सव से १५ दिन पूर्व लगभग ११-१२ माह की लंबी यात्रा के लिए समणी अमितप्रज्ञा का समणी मंगलप्रज्ञा के साथ अमेरिका न्यूजर्सी जाना था। प्रथम बार विदेश की इतनी लंबी यात्रा होने के कारण जैसे-जैसे जाने का समय निकट आ रहा था वैसे-वैसे उनके मन में उदासी आ रही थी। एक बार उन्होंने आचार्य प्रवर से अपनी मनःस्थिति निवेदित की।
आचार्य प्रवर ने स्नेह वर्षा करते हुए कहा-यह चिंतन करो साधना हमारा मुख्य लक्ष्य है और दूसरा लक्ष्य है धर्मसंघ की सेवा। इसके लिए जहाँ कहीं भी जाएं प्रसन्नता से काम करें और प्रसन्नता को भीतर से उत्पन्न करें। संकल्प करें यह भी साधना का प्रयोग है। अपने संबोध को आगे बढ़ाते हुए पूज्य प्रवर ने कहा-प्रतिदिन 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' का कम से कम २१ बार ध्यान करो। 'तित्थयरा मे पसीयंतु' का भी प्रयोग करो। इससे कायिक शक्ति बढ़ेगी और
६२ / लोगस्स-एक साधना-२