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तीर्थंकरों की यह नियति होती है कि वे सब प्राणियों के आत्म सुख, आत्मिक स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए ही प्रवचन करते हैं। जो उनके प्रवचन को सुनते हैं उनकी वाणी पर श्रद्धा करते हैं और उनके अनुरूप अपने जीवन को ऊँचाई तक ले जाने में सफल हो जाते हैं, उनके सारे दुःख क्षीण हो जाते हैं। वे शाश्वत शांति की छाया में आत्मलीन हो जाते हैं। यही कारण है जिनदास चूर्णि में अर्हत् धर्म की उपलब्धि को बोधि कहा है।३७
अर्हत् दर्शन में साधक की हर प्रवृत्ति के पीछे निर्जरा का दृष्टिकोण रहा है। जितनी निर्जरा उतनी उज्ज्वलता। लोगस्स के द्वारा निर्जरा के उच्चतम शिखर पर आरोहण संभव है। क्योंकि विधिवत् किया गया कोई भी आध्यात्मिक अनुष्ठान सात-आठ कर्मों को शिथिल करता है। सब कर्मों का नाश करने वाले अर्हत् व सिद्ध स्वयं इस स्तव में समाविष्ट हैं जिनकी स्तुति की अभिनव प्राप्ति-'दर्शन विशुद्धि' आगम में बतलाई गई है। निस्संदेह यह चतुर्विंशति स्तव शक्ति का धाम है। इसके हर पद में समाया हुआ है आनंद, महाआनंद। यह कल्पतरु है, देव, गुरु, धर्म-तत्त्व का महत्त्व बताता है, सत्य दर्शाता है, ध्येय का ध्यान सिखाता है, ज्ञेय का ज्ञान कराता है और हेय का भान कराता है। अरिहंत दाता और ज्ञाता है, सिद्ध ज्ञेय एवं ध्येय है। 'चमत्कार को नमस्कार'-यह लोकोक्ति सत्य है पर नमस्कार में चमत्कार यह लोकोत्तर सत्य है। अतः “उट्ठिए णो पमायए"३८-इस आर्ष वाक्य का शंखनाद सब दिशाओं में अनुगूंजित रहे और सुषुप्ति को तोड़ते रहें, जिसका परिणाम होगा--अस्तित्त्व-बोध, तत्त्व-बोध, लक्ष्य-बोध, सामर्थ्य-बोध, कर्तव्य-बोध, यथार्थ-बोध और परमार्थ-बोध की प्राप्ति । यदि सुमेरु पर्वत की नींव एक हजार योजन नहीं होती तो वह शाश्वत नहीं होता। तात्पर्य यह है कि आधारशिला मजबूत चाहिए। धर्म में भी सम्यक् दर्शन रूप आधार को पहले से ही पक्का बना लेना आवश्यक है। आचार्य श्री तुलसी की अनुभूत वाणी इस दिशा में हमारे भीतर सर्च लाइट का कार्य करती रहें, इन्हीं मंगल भावों के साथ
सत्य में आस्था अचल हो, चित्त संशय से न चल हो । सिद्ध कर आत्मानुशासन, विजय का संगान गाएं । भावभीनी वंदना भगवान चरणों में चढ़ाये ॥
संदर्भ १. भगवती शत्तक-१३/२ की टीका २. उत्तराध्ययन-३/१ ३. महावीर की साधना का रहस्य-पृ./२७
लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता / १५