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आसक्ति से भोगा। श्री मज्जयाचार्य की आराधना के बोल इसी तथ्य की स्मृति कराते हैं
पुण्यपाप पूर्व कृत, सुख दुःख ना कारण रै । पिण अन्य जन नहीं, इम करै विचारण ॥
भावै भावना ॥
निष्कर्ष
___ अर्हत् सर्वोपरि श्लाका पुरुष हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के क्षेत्र में उनकी तुलना में कोई संसारी प्राणी नहीं आ सकता। इसलिए उनको लोकोत्तम कहा गया है। ऐसे लोकोत्तम अर्हतों का पुरुषार्थ अपनी शांति (निर्वाण) के लिए भी होता है
और संसार की शांति के लिए भी होता है। वे सहज रूप से परम कारूणिक होते हैं। उनकी करुणा में सबके कल्याण का या उत्कृष्ट विकास का भाव निहित है। वे सबको निःश्रेयस के पथ पर अग्रसर करते हैं। सबका निर्वाण उन्हें अभिष्ट है। इसलिए कहा गया है
शमोद्भुतोद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाद्भुता ।
सर्वाद्भुतनिधि, तुभ्यं भगवते नमः ॥ प्रभो! तुम्हारी शांति अद्भुत है, अद्भुत है तुम्हारा रूप, सब जीवों के प्रति तुम्हारी कृपा अद्भुत है, तुम सब अद्भुतों की निधि के ईश हो, तुम्हें नमस्कार हो।
ऐसे वीतराग अर्हतों की शरण क्या क्या नहीं कर सकती? • वह सद्ज्ञान की प्राप्ति करवाती है। • दुर्गति का हरण करती है।
मिथ्या वासनाओं का नाश करती है।
धार्मिक मनोवृत्तियों को उत्पन्न करती है। • मोक्ष की आकांक्षा जगाती है और पार्थिव जगत् के प्रति विरक्ति पैदा करती है।
राग-द्वेष आदि विकारों का शमन करती है।
सच्ची राह पर चलने का साहस प्रदान करती है। • गलत व भ्रामक मार्ग में नहीं जाने देती। • आत्म-विश्वास की पुष्टि करती है।
चित्त के प्रदूषण को समाप्त करती है।
संसार में उस व्यक्ति को महान माना जाता है जो सबका सुख, स्वास्थ्य और कल्याण चाहता है। संसारी प्राणी को ऐसी चाह जगानी पड़ती है जबकि १४ / लोगस्स-एक साधना-२