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बोधि दुर्लभ भावना
मनुष्य जन्म दुर्लभ है और बोधि उससे अधिक दुर्लभ है। स्वयं का बोध होना बोधि है। जीवन में सब कुछ पाकर भी जिसने बोधि नहीं पाई उसने कुछ नहीं पाया और बोधि पाकर जिसने कुछ भी नहीं पाया उसने सब कुछ पा लिया। मरने के बाद सब कुछ छूट जाता है, वह हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है। संबोधि अपनी संपत्ति है, उसे खोजना है। जन्म के पूर्व और मरने के बाद भी जिसका अस्तित्व अखण्ड रहता है, उसकी खोज में निकलना बोधि भावना का अभिप्राय
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने भावना के अभ्यास की एक सहज सरल विधि बताई है। भावना का अभ्यास निम्न निर्दिष्ट प्रक्रिया से करना इष्ट सिद्धि में सहायक हो सकता हैविधि
साधक पद्मासन आदि किसी भी आसन में स्थिरता पूर्वक बैठ जाए, पहले श्वास को शिथिल करें। पांच मिनट तक उसे शिथिल करने की सूचना देते जाएं। जब श्वास शिथिल हो जाए तब उपशम आदि पर मन केन्द्रित करें। इस प्रकार निरन्तर आधा घंटा तक अभ्यास करने से पुराने संस्कार विलिन हो जाते हैं और नये संस्कारों का निर्माण होता है।
सम्यक् दर्शन की दुर्लभता का चिंतन करना एवं श्री ऋषभदेव भगवान के अठानवें पुत्रों की तरह सम्यक्त्व का महत्त्व समझकर वैराग्यवान बनना और संयम लेना ही इस भावना का उद्देश्य है। बोधि के लक्षण संवेग निर्वेद के परिणाम १. अनुत्तर धर्म श्रद्धा की प्राप्ति। २. अनुत्तर धर्म श्रद्धा से तीव्र संवेग की प्राप्ति। ३. तीव्रतम क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय। ४. मिथ्यात्व कर्म का अपुनर्बन्ध। ५. मिथ्यात्व विशुद्धि। ६. उसी जन्म में या तीसरे जन्म में मुक्ति (क्षायिक सम्यक्त्व बोधि की अपेक्षा)। ७. काम भोगों के प्रति अनासक्त भाव। ८. इन्द्रियों के विषय में विरक्ति। ६. आरंभ परित्याग। १०. संसार मार्ग का विच्छेद और मोक्ष मार्ग का स्वीकरण।
लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता / ६