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है और रिक्तता भी है। यदि एक वाक्य में कहा जाये तो बोधि आत्मा के अस्तित्व का संबोध है ।
प्राग् ऐतिहासिक काल की घटना है प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के समीप एक दिन उनके अठ्ठानवें पुत्र आए और प्रार्थना की कि “भन्ते ! भरत ने हम सबसे राज्य छीन लिए हैं। अपना राज्य पाने की अभिलाषा से हम आपकी शरण में आए हैं ।"
भगवान ऋषभ ने कहा - " मैं तुम्हें यह राज्य तो नहीं दे सकता किंतु ऐसा राज्य दे सकता हूँ जिसे कोई छीन न सके।"
पुत्रों ने पूछा - "वह राज्य कौन-सा है ?"
भगवान ने कहा - "वह राज्य है आत्मस्वरूप की उपलब्धि" । पुत्रों ने पुनश्च प्रश्न किया- "वह कैसे प्राप्त हो सकती है ?" तब भगवान ने समाधान की भाषा में कहा
संबुज्झह किं न बुज्झइ, संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ ७
संबोधि को प्राप्त करो। तुम संबोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो ? बीती रात लौटकर नहीं आती। यह मनुष्य जन्म बार-बार सुलभ नहीं है। हम जो पाना चाहते हैं, हमारे पास है, बाहर से हमें कुछ भी नहीं लेना है ।
भगवान से प्रतिबोध पा वे सभी प्रवर्जित हो संबोधि को प्राप्त कर उस अनुपम आत्म राज्य को उपलब्ध हो गये । सारांश में कहा जा सकता है कि यह संबोध कहीं बाहर से नहीं आता, जो भीतर सुषुप्त था वह जागृत हो जाता है और जब स्व-पर का बोध जागृत हो जाता है तब व्यक्ति का जो रूपान्तरण अनादि काल से घटित नहीं हुआ वह रूपान्तरण घटित होने लग जाता है । अध्यात्म योगी आचार्य श्री तुलसी ने भगवान महावीर की वाणी के आधार पर इस रहस्य को निम्नोक्त पंक्तियों में दर्शाया है"
जिसने शब्दादिक विषयों से भिन्न स्वयं को जान लिया
उसने मूर्च्छा संग त्याग सविवेक भेद - विज्ञान किया
वह आत्मवान - आत्मा को उसने पाया है
वह ज्ञानवान - उसने चैतन्य जगाया है। वह वेदवान - शास्त्रों का सही निचोड़ किया
६ / लोगस्स - एक साधना -२