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लब्धि नहीं होती, निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती ।' आराधना से रहित होने के कारण वे संसार में ही भटकते रहते हैं जिस प्रकार मूल के नष्ट हो जाने पर उसके परिवार - स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फल की वृद्धि नहीं होती । यही कारण है कि जिनेन्द्र भगवान ने दर्शन को धर्म का मूल और मोक्ष महल का प्रथम सोपान बताया है। भगवान महावीर ने 'सद्धा परम दुल्लहा' कहकर उसकी प्राप्ति को परम दुर्लभ बताया है । जिस प्रकार लोक में जीव रहित शरीर को शव कहते हैं वैसे ही सम्यक् दर्शन रहित पुरुष चल शव है । शव लोक में अपूज्य है और सम्यक् दर्शन रहित पुरुष लोकोत्तर मार्ग में अपूज्य होता है। मुनि व श्रावक धर्मों में सम्यक्त्व की ही विशेषता है । जिस प्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि जीव भी स्वभाव से ही विषय कषायों से लिप्त नहीं होता । " श्रद्धाहीन व्यक्ति को कभी शांति समाधि नहीं मिल सकती। इसके विपरीत श्रद्धा हमें राग शक्ति से मुक्त कर सकती है। श्रद्धा/ बोधि सुलभ किसके लिए होती है उस रहस्य को उजागर करते हुए भगवान महावीर ने कहा
समत्तदंसणरत्ता अनियाणा सुक्कलेश मोगाढ़ा । इय जे मरन्ति जीवा, तेसिं सुल्लहा भवे बोहि ॥ १४
अर्थात् जो सम्यक् दर्शन में अनुरक्त, निदान (फल कामना से रहित) रहित और शुक्ल लेश्या में प्रतिष्ठित है - ऐसी स्थिति में जो जीव मरते हैं उनके लिए बोधि सुलभ है। इस प्रकार जिन्होंने सर्वसिद्धि करने वाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है, वे ही धन्य हैं, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं और वे ही पंडित हैं ।" उपरोक्त सारे विवेचन का सार निम्नोक्त पंक्तियों में समझा जा सकता है
किं बहुना भविएणं जे सिद्धा नरवरा गए काले । सिझहिजे व भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥ १६
अधिक कहने से क्या लाभ है? इतना समझ लेना कि आज तक जितने जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे वह सब सम्यक्-दर्शन का ही माहात्म्य हैं । यदि सम्यक् श्रद्धा रूप एक अंक है तो आगे जितने भी शून्य लगेंगे उतनी ही उसकी मूल्यवत्ता बढ़ती जायेगी ।
बोधि कहाँ है?
बोधि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का दिशाबोध है । वह गति भी है और गंतव्य भी है, वह साधना भी है और सिद्धि भी है, वह पूर्णता भी लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता / ५