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१. लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता
घनीभूत श्रद्धा ही सत्य का साक्षात्कार करा सकती है। भगवान महावीर ने कहा-मोक्ष का सच्चा कारण दर्शन ही है। चारित्र से यदि पाँव फिसल जाये तो घबराओ मत किंतु श्रद्धा के सहारे को कभी मत सरकने दो। सम्यक् दर्शन में वह शक्ति है कि उसकी उपस्थिति में दुर्गति का बंध हो ही नहीं सकता। यदि यह साथ नहीं छोड़े तो चारित्र की प्राप्ति करा ही देता है, इस भव में नहीं तो परभव में।
अर्हत हमारे आदर्श हैं। उनके जीवन से प्रेरणा पाने के लिए हम उनके गुणों का स्मरण करते हैं। अर्हत् बनने का अर्थात् वीतरागी बनने का संकल्प पुष्ट करते हैं। हमारे भीतर अनंत शक्तियों का खजाना है। उस खजाने को खोजने की आवश्यकता है। जिन्होंने उस खजाने को खोजा है, आत्मसाक्षात्कार किया है, उनके प्रति हमारी वंदना ही हमारा उस दिशा में प्रस्थान है। यही कारण है कि साधक लोगस्स-स्तव को माध्यम बनाकर अर्हत् भगवन्तों से 'बोहिलाभं' (दितु) कहता हुआ आत्म-संबोधि की लोकोत्तर भावना अभिव्यक्त करता है।
वस्तुतः एक सच्चा साधक, आत्मार्थी साधक किसी भौतिक सामग्री की नहीं वरन् धर्म जैसे अमूल्य आत्मिक पदार्थ की ही इच्छा करता है। अर्हत् भगवन्तों की स्तुति से सांसारिक सुख संपत्ति व ऐश्वर्य की अभिलाषा करना भगवान की भक्ति नहीं सौदा मात्र है। एक सच्चा साधक ऐसा कभी नहीं कर सकता। बोधि लाभ की अभिलाषा क्यों?
घनीभूत श्रद्धा ही सत्य का साक्षात्कार करा सकती है। भगवान महावीर ने कहा-"भट्टेणं चरित्ताओं दसंणं दढ़यरं गहेयव्वं" । अर्थात् चारित्र से पांव फिसल जाये तो घबराओ मत किंतु श्रद्धा के सहारे को कभी मत सरकने दो। सम्यक् दर्शन में वह शक्ति है कि इसकी उपस्थिति में दुर्गति का बंध हो ही नहीं सकता। यदि यह साथ नहीं छोड़े तो चारित्र की प्राप्ति करा ही देता है, इस भव में नहीं
लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता / १