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विधि
इस मंत्र की साधना उत्तरदिशाभिमुख हो १५,००० बार जपने से सिद्ध होती है।
लाभ
धर्म के कार्यों में रुचि का विकास होता है। देवता प्रसन्न होते हैं। जय-जयकार होती है, सब प्रकार के सुख और अन्त में समाधि मरण का गौरव प्राप्त होता है।
॥ इति षष्ठ मंडलं ॥ ७. मंत्र
ॐ ह्रीं ऐं ओं जो जौं चदेस निम्मलयरा आइच्चेस अहियं पयासयरा।
सागरवर गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु मन मनोवांछित पूरय पूरय स्वाहा ॥ विधि
पूर्व दिशा की ओर अभिमुख हो १००० जप करें। लाभ
मनः शैथिल्य दूर होता है। सब प्रकार की आशा पूर्ण होती है। यश और प्रतिष्ठा बढ़ती है। सब जगह पूज्यता प्राप्त होती है।
॥ इति सप्तम मंडलं ॥ लोगस्स कल्प-एक घटना प्रसंग
पेटलावद के बापूलालजी मोन्नत के मकान में बीस वर्षों से एक किरायेदार रह रहा था। बीस वर्षों के पश्चात जब उसे मकान खाली करने का कहा तब वह मकान खाली करने से इनकार हो गया। पेटलावद कोर्ट, S.D.O. पेटलावद कोर्ट, इंदौर हाई कोर्ट-तीनों जगह के केस में बापूलालजी जीत गये पर किरायेदार मकान खाली करने को तैयार नहीं हुआ। आगे से आगे कार्यवाही चलती रही। इस मध्य तीस वर्ष का समय बीत गया। बापूलालजी का भी स्वर्गवास हो गया।
__ एक दिन उनका पुत्र श्रेणिक पेटलावद के मंत्र-कोविद श्रावक बसंतीलाल कासवा के पास गया। सारी स्थिति की उन्हें अवगति दी। कासवाजी ने उन्हें लोगस्स के निम्नोक्त पद्य की प्रयोग विधि बताते हुए जप करने का निर्देश दिया। मंत्र
सुविहिं च पुफ्फदंतं सीयल सिजंस वासुपूज्जं च । विमल मणंतं च जिणं धम्म संतिं च वंदामि स्वाहा ॥
लोगस कल्प / १३७