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१३. चक्र और तीर्थंकर जप चक्र शारीरिक, मानसिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, आचारात्मक, सूक्ष्म, प्रतीकात्मक, पौराणिक, पार्मिक, विकासात्मक, आध्यात्मिक अनेकों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। उन पर ध्यान केन्द्रित कर जप, ध्यान, अनुप्रेक्षा, रंगों के ध्यान आदि करने से हमारे मस्तिष्क, मन, इड़ा, एवं पिंगला के कार्यों में संतुलन आता है तथा कुण्डलिनी जागरण की पृष्ठभूमि तैयार होती है।
आध्यात्मिक एकाग्रता के लिए शरीरस्थ चक्रों को भी एकाग्रता के केन्द्र-बिंदु के रूप में उपयोग में लाया जाता है। शारीरिक स्तर पर चक्रों का संबंध शरीर में स्थित प्रमुख तंत्रिका जाल एवं अन्तःस्रावी ग्रंथियों से होता है। कई योगासनों का विशेष शक्तिशाली एवं लाभदायक प्रभाव इनमें से एक या अधिक ग्रंथियों अथवा जालकों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, कण्ठ क्षेत्र में स्थित थाईराइड ग्रंथि पर सर्वांगासन एक शक्तिशाली दबाव उत्पन्न करता है। इस ग्रंथि का संबंध विशुद्धि-चक्र से होता है। इस आसन से थाईराइड ग्रंथि की अच्छी मालिश हो जाती है और इसकी कार्यशीलता में सुधार होता है। इसलिए आसन करते समय इस चक्र पर सजगता केन्द्रित की जाए, तो इसका लाभ बहुत अधिक बढ़ जायेगा। चक्र की परिभाषा
चक्र का सामान्य अर्थ पहिया या वृत्त होता है योग के संदर्भ में इसका अर्थ भँवर या चक्रवात भी होता है। चक्र शरीर के विशेष भागों में स्थित प्राण शक्ति के केन्द्र हैं, जो सम्पूर्ण मानव शरीर में व्याप्त प्राण के प्रवाह को नियंत्रित करते
योग की भाषा में 'चक्र', प्रेक्षाध्यान में 'चैतन्य-केन्द्र', आयुर्वेदानुसार 'मर्म स्थान', शरीर शास्त्र की भाषा में 'ग्लैण्ड्स' और जापान में 'जुडो' पद्धति में 'क्यूसोस' कहलाने वाले इन सबके स्थल और आकार समान हैं। एक्यूपंक्चर और
चक्र और तीर्थंकर जप / १२३