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यह स्वतः ही ऐसा शक्ति संपन्न है कि महर्द्धिक देवों को भी इसके उपासकों के वशवर्ती रहना पड़ता है । वे भी उनको वंदन, नमस्कार करते हैं। छोटे-बड़े सभी कार्यों की सिद्धि के लिए यह सर्वश्रेष्ठ एवं सदैव सभी के लिए इष्ट- कारक, विघ्न निवारक, मंगलदायक और शांतिप्रदायक ही है, यही इसकी सर्वोपरि विशिष्टता है । इसके एक-एक पद्य में अनंत गुण और अनंत भावों की अनुभूति अन्तर्निहित है तथा अर्हत् स्वरूप की अनंत अनंत सुषमाएं हिलोरे ले रही है । "अरहंते कित्तइस्सं" कहते ही कर्म शत्रुओं के हंता, ज्ञान- दर्शन - चारित्र के आदर्श प्रतीक सदेह मुक्त आत्माओं के गुण, कर्म, ज्ञान आदि की ओर बरबस ध्यान चला जाता है और उन गुणों से अपने जीवन को अलंकृत करने की भावना जागृत हो उठती है। तब वह उपासक सदाशयता से कहता है - "वंदे तद्गुण लब्धये" अर्थात् उन गुणों की उपलब्धि के लिए वंदन करता हूँ । उच्च कोटि का साधक जानता है
चातक मीन पतंग जब, पिया बिन न रह पाय । साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय ॥
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वस्तुतः गुणवत्ता से ही व्यक्ति की मूल्यवत्ता बढ़ती है । साधक के चित्त में विद्यमान निर्मलता, निर्मोहिता, निर्भीकता, निरहंकारिता की सुवास का सुवासित रहना ही उसकी मूल्यवत्ता का महनीय कारण है । तेरापंथ के दशम् अनुशास्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं आध्यात्मिक चेतना से लोगस्स की साधना का समग्र दृष्टिकोण निम्नोक्त रूप में प्रस्तुत किया है । लोगस्स की साधना का समग्र दृष्टिकोण है
आत्मा का जागरण
चैतन्य का जागरण
आनंद का जागरण
अपने परमात्म स्वरूप का जागरण
और अर्हत् स्वरूप का जागरण ॥
इस संदर्भ में कुछ अनादि - कालीन जिज्ञासाएं हैं, जैसे परमात्मा कैसा है ? उसका स्वरूप क्या है? वह कहाँ है? साधक सिद्ध कब बनता है ? इत्यादि ।
कोई कहता है परमात्मा स्थान विशेष में है तो कोई कहता है वह सर्वत्र है । कोई कहता है वह सर्वगुण संपन्न है तो कोई कहता है वह गुणातीत है । कोई साकार तो कोई निराकार बताता है । इन उभरती जिज्ञासाओं का समाधान यदि महावीर वाणी में खोजें तो वह है