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कीर्ति, वर्ण, शब्द (लोक प्रसिद्धि), श्लोक (ख्याति) के लिए तप नहीं करना चाहिए। निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए।
सभी तीर्थंकरों ने कठोर तपस्याएं की। उनके शासन में साधु-साध्वियां, श्रावक-श्राविकाएं भी कर्म निर्जरा हेतु विविध तपस्याएं करते हैं। इतिहास साक्षी है भरत चक्रवर्ती ने अपने पूर्वभव में ६६ लाख मास खमण किये तो श्रीकृष्ण वासुदेन ने अपने पूर्व भव में ६६ लाख मासखमण किये। भगवान ऋषभ ने एक वर्ष का कठोर तप तपा तो भगवान महावीर ने छदमस्थ अवस्था में १२ वर्ष व एक पक्ष की अवधि में सिर्फ ३५० दिन ही भोजन किया।
ध्यान और तप
निर्जरा (तप) के बारह प्रकार हैं। ध्यान उसके आभ्यन्तर भेदों में से एक है। अतएव ध्यान करना भी तपस्या है। जैन दर्शन के अनुसार ध्यान आभ्यन्तर तपस्या है। शरीर को स्थिर करना, मन को एकाग्र करना और अमन की स्थिति तक पहुँचने का प्रयास करना ध्यान की साधना है। यह भी कर्म निर्जरा का एक सशक्त उपाय है। इस प्रकार कर्म निर्जरा के लिए तपस्या की आराधना आवश्यक है। तपस्या करने से व्यवदान होता है, कर्म कटते हैं और आत्मा निर्मल बन जाती है। लोगस्स में शुद्धात्मा का वर्णन है उनके ध्यान से निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होती है। अतः ध्यान का दृढ़ अभ्यास हो जाने पर साधक को यह अनुभव करना आवश्यक है कि मैं परमात्मा हूँ, सर्वज्ञ हूँ, मैं ही साध्य हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, सर्व ज्ञाता और सर्वदर्शी भी मैं ही हूँ। मैं सत्-चिद्-आनंद स्वरूप हूँ, अज हूँ, निरंजन हूँ। इस प्रकार चिंतन करता हुआ साधक जब सब संकल्प-विकल्पों से विमुक्त हो अपने आप में विलिन हो जाता है, तब उसे निर्विकल्प ध्यान की या परम समाधि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार शुद्ध स्वरूप आत्माओं को नमस्कार करने से, उनके स्वरूप का चिंतन और ध्यान करने से चित्त हल्का बनता है। प्राणी की उर्ध्वारोहण की यात्रा प्रारंभ हो जाती है। इस प्रकार लोगस्स का आध्यात्मिक वर्चस्व अखण्ड है।
लोगस्स और तप
व्रत (तप) में मंत्र से कई गुणा ज्यादा शक्ति है। परन्तु जब तप व जप दोनों का मणि कांचन योग मिल जाता है तो कर्मों की विशेष निर्जरा और शीघ्र कार्य-सफलता हस्तगत होने लगती है। जैन दर्शन में तप और जप का अनुष्ठान विशेष रूप से होता ही है पर भारतीय संस्कृति में भी तप व जप का विशिष्ट स्थान
रहा है।
६६ / लोगस्स-एक साधना-२