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________________ लोगस्स में चौबीस तीर्थंकरों के नामोल्लेख का हेतु इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में जो चौबीस तीर्थंकर हुए उनके नाम और चारित्र का स्मरण करने से शुद्ध तत्त्व का लाभ हो, यही इसका प्रमुख हेतु है। वैरागी का चारित्र वैराग्य का बोध देता है। अनंत चौबीसी के अनंत नाम सिद्ध स्वरूप में समग्रतः आ जाते हैं। वर्तमान काल के चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस काल में लेने से काल की स्थिति का अतिसूक्ष्म ज्ञान भी याद आ जाता है। जैसे इनके नाम इस काल में लिए जाते हैं वैसे ही चौबीसी के नाम काल और चौबीसी बदलने पर लिये जाते रहते हैं। इसलिए अमुक, अमुक नाम लेना ऐसा कुछ निश्चित नहीं है, परंतु उनके गुण और पुरुषार्थ की स्मृति के लिए वर्तमान चौबीसी की स्मृति करना, ऐसा तत्त्व निहित है। उनका जन्म, विहार, उपदेश यह सब नाम निक्षेप से जाना जाता है। इससे हमारी आत्मा ज्ञान का प्रकाश पाती है। सर्प जैसे बांसुरी के नाद से जागृत होता है वैसे ही आत्मा अपनी सत्य ऋद्धि सुनने से मोह निद्रा से जागृत होती है।१६ तीर्थंकर चौबीस ही क्यों? - जैन भूगोल में अढ़ाई द्वीप क्षेत्रों का वर्णन मिलता है-जम्बुद्वीप, धातकी खण्ड, अर्द्धपुष्कर द्वीप। इन अढ़ाई द्वीप क्षेत्रों में पन्द्रह कर्मभूमि है-पांच भरत, पांच एरभरत और पांच महाविदेह क्षेत्र। इन क्षेत्रों के एक सो सत्तर भूभाग ऐसे हैं जहाँ तीर्थंकर हो सकते हैं। एक समय में न्यूनतम २० और अधिकतम १७० तीर्थंकर हो सकते हैं किंतु सर्वज्ञों की संख्या नौ करोड़ मानी गई है। इनमें मात्र दस भू भाग (पांच भरत, पांच एरभरत) हैं जहाँ पर अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में काल का यह रूप नहीं है। वहाँ एक सदृश्य (अवसर्पिणी के चौथे आरे के समान) काल रहता है। वहाँ तीर्थंकर की निरन्तर विद्यमानता है। वहाँ धर्म का स्थाई रूप रहता है। भरत-एरभरत में ऐसा नहीं होता है। इसका कारण है एक तीर्थंकर के होने के बाद दूसरे तीर्थंकर के उत्पन्न होने के बीच का समय स्वभावतः निर्धारित है। उस अन्तराल को जोड़ने से तीर्थंकरों के उत्पन्न होने का समय ही समाप्त हो जाता है। प्रत्येक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल में एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का समय माना गया है। इस दृष्टि से चौबीस तीर्थंकरों के ही होने का अवकाश है, ज्यादा नहीं। शेष एक सौ साठ क्षेत्र महाविदेह में आ जाते हैं। वहां अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल नहीं है। एक तीर्थंकर के बाद दूसरे तीर्थंकर का अभ्युदय हो जाता है। क्षेत्र विशेष को लेकर प्रत्येक काल-चक्र में चौबीस ही तीर्थंकर होते हैं, तेईस ७० / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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