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बुद्धसिद्ध की स्थापना कर इस बात को निरर्थक सिद्ध कर दिया कि मेरी परम्परा में आने पर ही तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं। ऐसे पैंतालीस अन्यलिंगी सिद्ध हुए हैं जिनकी वाणी 'इसिभासिय सित्तं' में संग्रहीत की गई है। सम्प्रदाय मुक्त, किन्तु निर्मल व्यक्ति को पूर्णत्व का अधिकारी मानकर भगवान महावीर ने धर्म को प्राधान्य दिया है, उसकी शाश्वतता को उजागर किया है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भगवान ऋषभ और भगवान महावीर के समय प्रतिदिन आवश्यक होता था। बीच के बावीस तीर्थंकरों के मुनि स्खलना होने पर आवश्यक करते थे, इस उल्लेख से यह तो स्पष्ट है कि आवश्यक की परम्परा अति प्राचीन है। लेकिन इसका स्वरूप बदलता रहा है। इतिहास का सिंहावलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि वर्तमान में उपलब्ध आवश्यक एक आचार्य की रचना न होकर आचार्य भद्रबाहु एवं उनके समकालीन अनेक बहुश्रुत, स्थविर आचार्यों के चिंतन एवं ज्ञान की फलश्रुति है। चूंकि इस ग्रंथ को आत्मालोचन का उत्कृष्ट ग्रंथ बनाना था, इसलिए अनेक आचार्यों का सुझाव और चिंतन का योग अपेक्षित था। यदि आवश्वक सूत्र किसी एक आचार्य की कृति होती तो दसवैकालिक के कर्ता की भांति इसके कर्ता का नाम भी अत्यन्त प्रसिद्ध होता, क्योंकि यह प्रतिदिन सुबह और सायं स्मरण की जाने वाली कृति है। अतः आवश्यक को अनेक आचार्यों की संयुक्त कृति स्वीकार करना चाहिए और दूसरे चतुर्विंशति आवश्यक के कर्ता श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहु को ही मानना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र ने आवश्यक को गणधर प्रणीत माना है। श्री भिक्षु आगम विषय कोश १, ग्रंथ परिचय पृ./३१ पर लिखा है-संभव है भगवान पार्श्व के समय तक एक सामायिक आवश्यक था और उसे षडावश्यक का रूप भगवान महावीर के शासन में मिला। षडावश्यक के विषय का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया
और उसका सूत्ररूप में गुंफन गणधरों ने किया। तत्त्वं तु केवली गम्यम्। लोगस्स का माहात्म्य
जैन साहित्य में तीर्थंकरों की स्तुति, अर्चा से संबंधित अनेक ग्रंथ हैं परन्तु लोगस्स सूत्र का अपना विशिष्ट महत्त्व है। कई बार मन में जिज्ञासा होती है कि लोगस्स सूत्र का इतना महत्त्व क्यों? जब समाधान खोजने का प्रयास किया तो कुछ बिंदु समझ में आए जो इस लोगस्स सूत्र की महत्ता को उजागर करते हैं• मंत्रात्मकता • यथार्थवाद • वीतराग वाणी • सर्वशक्तिमान अर्हत् आत्माओं का गुणोत्कीर्तन
लोगस्स एक सर्वे / ६७