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________________ श्रतकेवली गणधर प्रणीत संपूर्ण द्वादशांगी* रूप जिनागम के सत्र और अर्थ के विषय में विशेषतः निपुण होते हैं। अतएव उनकी क्षमता एवं योग्यता मान्य है कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे उनका जिनागम के साथ कुछ भी विरोध नहीं हो सकता। जिनोक्त विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के अनुकूल ग्रंथ रचना करना ही उनका एक मात्र प्रयोजन होता है। इस दृष्टि से इन ग्रंथों को संघ में आगमान्तर्गत कर लिया है। इनका प्रामाण्य स्वतंत्र भाव से नहीं, किन्तु गणधर प्रणीत आगम के साथ अविसंवाद-प्रयुक्त होने से है। वृहत्कल्प भाष्य में उल्लेख मिलता है कि जिस बात को तीर्थंकर ने कहा उसको श्रुतकेवली भी कह सकते हैं। इस अपेक्षा से केवली और श्रुतकेवली के ज्ञान में कोई विशेष अन्तर न होने के कारण दोनों का प्रामाण्य समान रूप से है। दिगम्बर परम्परा में लोगस्स को आचार्य कुन्दकुन्द की रचना माना गया है। उसको पढ़ने से ज्ञात होता है कि प्रथम पद को छोड़कर सभी पद एक दो शब्दों के परिवर्तन के अलावा समान ही हैं। परन्तु कुन्दकुन्द आचार्य से आवश्यक सूत्र प्राचीन है। उसमें स्पष्ट रूप से चतुर्विंशति स्तव का उल्लेख है। दिगम्बर ग्रंथों में शोरसैनी प्राकृत का प्रयोग हुआ है जबकि श्वेताम्बर वाङ्मय अर्द्धमागधी भाषा में है, इसलिए एक दो शब्दों का अन्तर हो सकता है। आवश्यक सूत्र उतना ही पुराना होना चाहिए जितना नमस्कार महामंत्र क्योंकि आवश्यक नियुक्ति में नमस्कार महामंत्र के पांचों पदों की लगभग १३६ गाथाओं में विस्तृत व्याख्या है। इससे पूर्ववर्ती किसी भी ग्रंथ में नमस्कार महामंत्र का इतना विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। आवश्यक नियुक्ति में पंच परमेष्ठी को नमस्कार पूर्वक सामायिक करने का निर्देश है। इस गाथा से यही फलित निकलता है कि नमस्कार महामंत्र उतना ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र या आवश्यक सूत्र। __ भगवान महावीर से पूछा गया-जिसे आप नित्य या शाश्वत धर्म कहते हैं वह धर्म क्या है? उन्होंने कहा-किसी भी प्राणी को मत मारो, उपद्रुत मत करो, पारिताप मत दो और किसी की स्वतंत्रता का अपहरण मत करो। उन्होंने जैन धर्म को नहीं अपित धर्म तत्त्व को शाश्वत कहा है। नाम और रूप शाश्वत नहीं होते, तत्त्व शाश्वत होते हैं। जैन, वैष्णव, शैव आदि सब नाम धर्म की परम्परा के सूचक हैं। इनमें धर्म की व्याप्ति नहीं है। भगवान महावीर ने अश्रुत्वा केवली, अन्यलिंग सिद्ध, गृहलिंग सिद्ध और प्रत्येक * तीर्थंकर की वाणी के आधार पर उनके विशिष्ट ज्ञानी शिष्य-गणधर जिन आगमों का संकलन करते हैं वे अंग कहलाते हैं। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग है, इन्हें द्वादशांगी कहा जाता है। ६६ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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