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है। दशार्णभद्र राजा को इन्द्र अपने वैभव का प्रदर्शन कर परास्त करना चाहता था तथा भगवान महावीर ने कहा-दशार्णभद्र! तुम मानव हो। मानव अगर अपनी शक्ति से परिचित हो जाये तो वह देवों से पराजित नहीं हो सकता क्योंकि त्याग की चेतना में देव मानव की प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। दशार्णभद्र को बोध पाठ मिला। वह राज्य-वैभव का त्यागकर मुनि बन गया। इन्द्र को पराजित होना पड़ा। उसका सिर राजर्षि के आगे झुक गया।
__संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में भक्ति के स्थान गुण है व्यक्ति नहीं। जैन धर्म की यह स्पष्ट अवधारणा है कि व्यक्ति साधना के द्वारा आत्मा के उत्कर्ष से अपनी आन्तरिक शक्तियों का विकास कर अर्हत् व सिद्ध बन सकता है। इस साधना तक पहुँचने हेतु वह आध्यात्मिक विकास के लिए देव-गुरु व धर्म की शरण को स्वीकार करता है। कैसे हो परमात्मा के दर्शन?
आत्मा ही परमात्मा मेरा, टूट पड़े कर्मों का घेरा। कर्म मूल हिंसा का उससे, बचता नहीं मनुज अज्ञानी।
आयारो की अर्हत् वासी ॥ अध्यात्म मनीषी आचार्यश्री तुलसी की उपरोक्त पंक्तियाँ इस तथ्य को व्याख्यायित करती है कि जैन धर्म अवतारवाद को नहीं मानता। वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है पर ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानता। यहाँ आत्म कर्तृत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है और पुरुषार्थवाद को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। वह प्रत्येक आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करता है और पुनर्जन्म में विश्वास करता है।
आत्मा अनंत शक्ति का स्रोत एवं निधान है। उस अनंत शक्ति को सक्रिय कैसे किया जाये? शक्ति की अभिव्यक्ति कैसे हो? कैसे हो आत्मा और परमात्मा के दर्शन? और कैसे हो उनके साथ तादात्म्य भाव? जिज्ञासा के रूप में उभरते इत्यादि प्रश्नों के समाधान में कहा जा सकता है कि इन सबका साक्षात्कार करने की प्रमुख रूप से तीन चाबियां हैं-उपासना, स्तुति और भक्ति। १. उपासना - समीप बैठना। २. स्तुति - गुणों का उत्कीर्तन करना। ३. भक्ति - इष्ट के प्रति समर्पित हो जाना।
जैन वाङ्मय में स्तुति / २५