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इस तथ्य को केवल जैन आचार्य ही नहीं मानते भागवत् में भी इस सच्चाई की अभिव्यक्ति हुई है। वैष्णव ग्रंथों में नाभि को आठवां मनु मानकर ऋषभ को उनका पुत्र माना गया है। वैदिक संहिताओं के कई प्रकरणों में ऋषभ का उल्लेख मिलता है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इस सिद्धान्त का उद्घोष किया था कि मनुष्य अपनी शक्ति का विकास कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है । प्रत्येक आत्मा में परमात्मा विद्यमान है । जो आत्म साधना से अपने देवत्व को प्रकट कर लेता है, वही परमात्मा बन जाता है । उनकी इस मान्यता की पुष्टि ऋग्वेद की निम्नांकित ऋचा से होती है
चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्ता सो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो शेखीत्ति महादेवो मर्त्या आ विवेश ॥
अर्थात् जिसके चार शृंग (अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य) हैं, तीन पाद (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) हैं, दो शीर्ष (केवल्य और मुक्ति) हैं, और सात हस्त (सात व्रत ) हैं तथा जो मन, वचन और काय - इन तीन योगों से बद्ध ( संयत ) हैं उस वृषभ (ऋषभ देव ) ने घोषणा की है कि महादेव (परमात्मा) मनुष्य के भीतर ही आवास करता है । अथर्व वेद और यजुर्वेद से भी इस मान्यता के प्रमाण मिलते हैं। कहीं-कहीं वे प्रतीक शैली में वर्णित हैं और कहीं-कहीं संकेत रूप में ।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन धर्म व्यक्ति का नहीं गुणों का उपासक है । वह व्यक्ति की उपासना का समर्थन तो करता है पर उसका कारण भी व्यक्ति के गुण ही हैं। गुणों की उपासना का प्रयोजन गुणों की प्राप्ति है । गुण वृद्धि के लिए ही भक्त उपासक गुणवान उपास्य को अपना आदर्श मानता है और जिस विधि से स्वयं उपास्य ने गुण प्राप्त किये उसी विधि से उस मार्ग को अपनाकर भक्त भी उपास्य के गुणों को प्राप्त करना चाहता है । आचार्य हेमचन्द्र ने वीतराग भगवान की स्तुति करते हुए कहा
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भव बीजांकुर जलदाः रागाद्याः क्षय मुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरौ जिनो वा नमस्तस्मै ॥
अर्थात् भव बीज अंकुर के लिए मेघ के समान रागादिक सम्पूर्ण दोष जिनके क्षीण हो गये उसे मेरा प्रणाम है फिर चाहे वह ब्रह्मा हो या विष्णु अथवा महादेव हो या जिन ।
कई लोग देवों की भक्ति व भौतिक समृद्धि से प्रभावित हो उनकी भक्ति करते हैं और कहते हैं कि वे स्तुति और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें भौतिक सुख समृद्धि देंगे । जैन सिद्धान्तानुसार देवों से भी मानवीय चेतना अधिक महत्त्व की २४ / लोगस्स - एक साधना - १