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भाव-मंगल है और भव-भ्रमण से मुक्त करता है। जीवन की इस भव्य बेला में जब शुभ कार्य करने का प्रसंग उपस्थित होता है, तब उस शुभ कार्य में विघ्न न आए, इस हेतु मंगलाचरण की प्राचीनकाल से ही परंपरा चल रही है। तीर्थंकरों के नाम मंत्राक्षर सम हैं। उनकी शरण स्वयं मंगल है। जो स्वयं मंगल होता है, वही दूसरों को मंगल दे सकता है। वही दूसरों की विघ्न-बाधाओं को दूर कर सकता है। वही मंगल मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत करना उचित है और वह मंगल है संपूर्ण मंगलों के स्थान-भूत तीर्थंकर प्रभु का नाम-स्मरण और उनके अनंत स्वरूप की स्तुति।
मंगल नाम का एक ग्रह भी है। वह बहुत चमकदार और लाल रंग का होता है। जिसके कारण उसके आस-पास के ग्रह प्रभावहीन हो जाते हैं। इसी प्रकार जिसके कारण अनिष्ट वस्तुएं प्रभावहीन हो जाएं-वह मंगल है। आध्यात्मिक दृष्टि से मंगल चार है१. अरिहंत २. सिद्ध ३. साधु ४. केवलीभाषित धर्म
पंच-परमेष्ठी व महान आत्माओं की स्तुति से निम्न लाभ होते हैं• अनिष्ट निवारण
पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा
समभाव वृद्धि । भवभ्रमण का विच्छेद
विघ्न उपशांति • कार्य सिद्धि
भय निवृत्ति • चित्त की निर्मलता
कुमति निवारण • सद्गुण वृद्धि।
इस प्रकार स्तुति के साथ प्रयुक्त 'मंगल' शब्द इस तथ्य को उजागर करता है कि वीतराग स्तुति लोकोत्तर, पारमार्थिक और वास्तविक मंगल है। वीतराग आत्माओं के अनुराग होने पर दर्शनाचार के प्रति आस्था सुदृढ़ बनती है। दर्शन के अपघाती कर्म दूर होते हैं। परिणाम-स्वरूप सम्यक्त्व की विशुद्धि होने से आत्मा के निम्नोक्त गुण प्रकट होते है
१४ / लोगस्स-एक साधना-१