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बाहुल्य है। उन्होंने जप एवं सुमिरन के द्वारा भक्तों को मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश दिया। सिक्ख धर्म में 'गुरुग्रंथ साहिब' की स्तुति गौरव के साथ की जाती है। जैन धर्म में 'पंच परमेष्ठी' की स्तुति व वंदना अपना वरेण्य स्थान रखती है। जैनों के ‘आवश्यक-सूत्र' में 'छह-आवश्यकों' (अवश्य करणीय कर्तव्यों) के उल्लेख में दूसरा 'चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक' और तीसरा 'वंदन आवश्यक' भक्ति व स्तुति स्वरूप ही है । भगवान महावीर ने 'पंच परमेष्ठी' वंदन को नीच - गोत्र कर्म के क्षय का और उच्च - गोत्र कर्म के अर्जन का कारण माना है। जैन शास्त्रों में वंदना के विशेष प्रसंगों का उल्लेख करते हुए कहा गया है
वंदना के प्रकार
जैन मतानुसार वंदना के विशेष प्रसंग और उसकी विधि का उल्लेख है।
जैसे
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पडिक्कमणे सज्झाए, काउसग्गावराहपाहुणए । आलोयण संवरणे, उत्तमट्ठे य वंदणय ॥
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प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग के समय । आशातना, विराधना होने पर ।
ज्येष्ठ अतिथि- साधु के आगमन पर ।
आलोचना - प्रत्याख्यान और अनशन के समय ।
वंदना तीन बार दाईं से बाईं ओर प्रदक्षिणा पूर्वक 'तिक्खुतो' पाठ से की जाती है। प्रदक्षिणा का तात्पर्य है - हाथ जोड़कर दाईं से बाईं ओर पूर्ण आवर्त्त कर हाथों को ललाट तक ले जाना । यह एक प्रदक्षिणा होती है ।
इसी प्रकार वैदिक परंपरा में मंदिरों में आरती की जाती है। आरती क अभिप्राय है - तीन महाशक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु व महेश ) को क्रमशः नमस्कार
करना ।
जैन परंपरा में यह रत्नत्रय - सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का प्रतीक है। वंदना के माध्यम से वंदनीय के सम्यक् ज्ञान, दर्शन व चारित्र को वंदना की जाती है ।
भारतीय संस्कृति मे संत परंपरा की ओर दृष्टिपात करते हैं तो संत तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से 'सियाराममय' हो जाने का उद्बोधन किया है। उन्होंने राममय होकर जिस कृति की रचना की, वह संसार में 'रामायण' के नाम से अमर भक्तिकाव्य बन गया। सूरदास ने कृष्णमय होकर जिन गीतों, पदों व भजनों का मधुर स्वर से संगान किया वह ग्रंथ 'सूर - सागर' सगुण भक्तिरस ६ / लोगस्स - एक साधना-१