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ध्यान करते हुए अर्हत्व सिद्ध भगवन्त के ध्यान के साथ आरोग्य, बोधिलाभ और उत्तम समाधि की अभिलाषा उपयुक्त है क्योंकि अर्हत् व सिद्धों का एक विशेषण 'अरुज' (शारीरिक, मानसिक रोग रहित ) है । रोग होते हैं विकार के कारण, जहाँ विकार नहीं है वहाँ रोग भी नहीं है। इसके अतिरिक्त रोग या तो शरीर में होता है या मन में होता है पर मुक्त आत्मा इससे रहित है अतः वहाँ रोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है । भव रोग क्रोध, मान, माया आदि दोष भी वहां मौजूद नहीं हैं इसलिए वीतराग आत्माओं का ध्यान हमारी आत्मा में भी इन द्रव्य और भव रोगों को जीतने का आत्मबल देता है और हमारी आरोग्य, बोधि और समाधि प्राप्ति की भावना सफल होती है ।
उपर्युक्त प्रक्रिया अथवा प्रयोग को बीस मिनट प्रतिदिन सूक्ष्मता पूर्वक करते हुए हम अपनी सारी वृत्तियों पर नियंत्रण पा सकते हैं, अशुभ लेश्याओं से मुक्त हो शुभलेश्याओं में प्रवेश कर सकते हैं। शुभ लेश्याओं का आरोग्य के साथ गहरा संबंध है। क्योंकि सूक्ष्म शरीर के द्वारा जो विपाक होता है उसका रस स्राव शरीर की ग्रंथियों के द्वारा होता है और वह हमारी सारी प्रवृत्तियों को संचालित व प्रभावित करता 1
इस तथ्य को उचित रूप से जानने वाला स्थूल शरीर तक ही नहीं रूकेगा और आगे बढ़ेगा। साधना का प्रयोजन भी यही है कि आगे से आगे बढ़ते जाएँ । हम प्रयोग की भूमिका पर स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर से भी आगे उन रसायनों तक पहुँचें जो कर्मों के द्वारा निर्मित हो रहे हैं । वहाँ पहुँच कर भी रूके नहीं, आगे बढ़ें और आत्मा के उन परिणामों तक पहुँचें जो उन स्रावों को निर्मित कर रहे हैं । स्थूल या सूक्ष्म शरीर तो उपकरण हैं मूल हैं आत्मा के परिणाम । मन व आत्मा के परिणाम निरन्तर चलते रहते हैं। आत्म परिणाम यदि विशुद्ध चैतन्य - केन्द्रों की ओर प्रवाहित होते हैं तो परिणाम विशुद्ध होंगे और वे ही आत्म परिणाम वासना को उत्तेजना देने वाले चैतन्य केन्द्रों की ओर प्रवाहित होते हैं तो परिणाम कलुषित होंगे।
इस प्रकार 'लोगस्स स्तव' के द्वारा चित्त को चैतन्य - केन्द्रों पर केन्द्रित कर द्रव्य और भव दोनों ही प्रकार के रोगों से मुक्ति प्राप्त करने में सफलता हस्तगत हो सकती है क्योंकि वीतराग की साधना वीतराग बनाती है, कहा भी है
बढ़ता ही बढ़ता गया, तन का मन का रोग | राग द्वेष ज्यूं ही छूट्या, हुग्यो सहज निरोग ॥
लोगस्स : रोगोपशमन की एक प्रक्रिया / २८५