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- इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर गुण निधान अर्हत् अनंत गुणों के गौरव से युक्त अर्थात् महिमा-मंडित हैं। उनकी स्तुति करते हुए साधक लोगस्स के माध्यम से उस निर्मल स्वरूप वीतरागता को आत्मसात् करने की उत्कृष्ट अभिलाषा अभिव्यक्त करता हुआ निवेदन करता है
एवं मए अभियुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा।
चउविसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ अर्थात् मेरे द्वारा संस्तुत रज-मल से रहित, जरा और मरण से मुक्त चौबीस ही जिनवर, तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों, अर्थात् मैं भी आपके आलंबन से उस शुद्ध अर्हत् वीतराग स्वरूप को प्राप्त करने हेतु सतत अप्रमत पुरुषार्थ करूं। विहुयरयमला
आत्मा अनंत ज्ञान के आलोक से प्रकाशित है, आलोकित है। परंतु उस पर पाप रूपी रज-मल लगा हुआ है। जिसके कारण इसकी तह में विद्यमान ज्ञान ज्योति हमें दिखाई नहीं देती। अर्हत् भगवन्त इस पाप मल से रहित हैं। अतएव वे स्वरूप में विद्यमान हैं इस दृष्टि से उनका एक महत्त्वपूर्ण विशेषण लोगस्स में 'विहुयरयमला' उल्लेखित किया गया है। आचार्य मानतुंग ने तीर्थंकरों की इस स्वरूपगत विशेषता को भक्तामर में रहस्यात्मक रूप में प्रदर्शित किया है जिसका सीधा संबंध कर्मों के जुड़ा है। भक्तामर की वे रहस्यात्मक पंक्तियाँ
निर्धूमवर्तिरपवर्जित तैलपूरः कृत्सनं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि। गम्यो न जातु मरुतां चलिता चलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत् प्रकाशः ॥ प्रभो! आप दीपक तो हो पर दीपक से संबंधित कारणों से रहित हो। इन कारणों में भी बहुत बड़ा रहस्य हैं - १. निधूम-दीपक का धुआं कालिमा, धुंधलापन, व्याकुलता और गर्मी का
प्रतीक है। परन्तु प्रभों! आप तो निधूम दीपक हो अर्थात् ऐसे अपूर्व दीपक हो जिसमें चार घनघाती कर्मरूप धुआं नहीं है। (१) ज्ञानावरणीय कर्म धुएं की कालिमा का प्रतीक है। स्वयं ज्योतिर्मान ज्ञान स्वरूप आत्मा इस कर्म के प्रभाव से अंधकारमय है। प्रभो! आप ज्ञानावरणीय कर्म से रहित हो अतः ज्योतिर्मय हो। (२) दर्शनावरणीय कर्म धुएं के धुंधलेपन का प्रतीक है क्योंकि जीव की यथास्थिति रूप वास्तविक बोध में यह कर्म बाधक कारण है। प्रभो! आप
दर्शनावरणीय कर्म से रहित हो अतः अन्तर्दर्शी हो। १८० / लोगस्स-एक साधना