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कर्म एकान्त शुभ ही होते हैं । वे पिछले दो जन्मों से क्षायिक सम्यक्त्व के धनी होते हैं । वे पिछले मनुष्य भव में संयम की विशिष्ट आराधना से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन करते हैं । अतएव वे तीसरे भव में तीर्थंकर बनकर मुक्त हो जाते हैं। तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होने के पश्चात आयुष्य कर्म बांधने वाले जीव वैमानिक देव बनकर अद्भुत ऋद्धि को प्राप्त होते हैं और वहां से च्यवकर प्रतिष्ठित राजकुल में जन्म लेते हैं। तीर्थंकर नाम कर्म के उपार्जन से पूर्व आयुष्य का बंध करने वाले जीव तीसरी नरक भूमि तक जा सकते हैं किंतु सम्यक्त्व से च्युत नहीं होते। वहां से आयु पूर्ण कर उत्तम राजकुल में जन्म लेते हैं और तीर्थंकरत्व की . दिशा में प्रस्थान करते हैं । भाव तीर्थंकर तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान के ही धारक होते हैं। वहाँ तक पहुँचने हेतु वे क्षपक श्रेणी ही लेते हैं अतः उस भव में ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते। आंशिक व्रत स्वीकार नहीं करने के कारण वे पांचवें गुणस्थान का भी स्पर्श नहीं करते । क्षायिक सम्यक्त्वी होने के कारण प्रथम तीन गुणस्थानों का स्पर्श भी नहीं करते हैं। संसार मुक्ति से कुछ समय पूर्व वे १४वें गुणस्थान में शैलेषी अवस्था को प्राप्त करते हैं और 'अ इ उ ऋ लृ' – इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण जितने से समय में सिद्ध, बुद्ध व मुक्त हो जाते हैं ।
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तीर्थंकरों की वैभव संपदा
यहां वैभव संपदा का तात्पर्य प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, लब्धिधारी, श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी समुदाय की निष्पत्ति का होना । इतिहास का सिंहावलोकन करने से वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस अर्हतों का संघ परिवार निम्न रूप में उपलब्ध होता हैं
१,४५२ १,७६,१००
१,३३,४००
१,४५,५६१
३३,६६८
२,४५,२०८
१,२६,२००
गणधर केवलज्ञानी अवधिज्ञानी
मनः पर्यवज्ञानी चौदह पूर्वी वैक्रिय ब्धधर
वाद
आराधक मुन
साध्वी
श्रावक
श्राविका
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१६८५०५१-२८४८०००
४४,३६,४०६
५५,४८,०००
१,०५,४०,८००
तित्ययरा में पसीयंतु / १७६