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२२. जब वे गर्भ में थे तो माता ने स्वप्न में पहिये की अरिष्ट रत्नमय नेमि (पठ)
को देखा इस कारण जिनका नाम अरिष्टनेमि रखा गया। आगे जाकर ये अरिष्टनेमि जैन धर्म के बावीसवें तीर्थंकर बने। जिनका नाम उपद्रवों को दूर करने वाला और सारे संसार का अरिष्ट-कल्याण करने वाला है ऐसे गुण संपन्न नाम वाले श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री अरिष्टनेमि भगवान को मेरा
वंदन।
२३. लोकालोक के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले श्रीपार्श्व जब माँ की गर्भ में
थे तब किसी रात में दीपक के बुझ जाने पर उनकी माता ने राजा के पार्श्व-पसवाडे के पास आते हुए सर्प को गर्भ के तेजस् से देखकर राजा को सावधान किया इस प्रकार ‘पार्श्व' पद के संबंध में श्री पार्श्वनाथ नाम वाले भगवान को मेरा वंदन। ये प्रकट प्रभावी अपने नाम के अनुरूप पारस सम है। जिनके प्रभाव से नाग-नागिन ने इन्द्र पद पाया-धरणेन्द्र, पद्मावती के नाम से विश्रुत हुए-ऐसे श्री पार्श्वनाथ की निर्मल एवं मंगल उपासना करने से लोह स्वरूप आत्मा भी स्वर्णस्वरूप मय हो निखर उठती है। अर्थात्
जीवन की कल्मषता और जड़ता नष्ट हो जाती है। २४. ज्ञानादि गुणों के वर्द्धमान (बढ़ाने वाले) या अनंतकाल से संसार समुद्र में
गोते खाते हुए प्राणियों के ज्ञानादि आत्मिक गुणों को बढ़ाने वाले श्री महावीर भगवान जब माता की गर्भ में थे तब ज्ञातकुल धन, धान्य, सुवर्णादि से परिपूर्ण हुआ। अतएव गुणनिष्पन्न नाम वाले वर्धमान स्वामी जिनको देवों ने महावीर संबोधन दिया, जो इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर होने से हमारे लिए परम उपकारी हैं, उनको हमारा पुनः पुनः वंदन हो।
इस प्रकार गुण-श्रेणी को ध्यान में रखते हुए नाम कीर्तन करने (उन पवित्र नामों का सुमिरन करने से) से चित्त की शुद्धि होती है। चित्तशुद्धि चिंतामणि रत्नवत् इच्छित फल प्राप्ति का साधन बनती है।
अर्हत् नामों की मंत्रात्मकता
जैन साहित्य में मंत्र-जप, श्रुत-जप, इष्ट-जप-तीनों की सुव्यवस्थित पद्धति रही है। जैनमंत्र "मंत्रोदधिकल्प" में मंत्रगत, रोगनाशक, मनः प्रसादन, कषाय शामक, देव-दर्शन आदि चामत्कारिक शक्तियों का कारण शब्दोच्चारण संबंधी विशिष्ट यौगिक क्रिया को माना है, किसी एकान्त अज्ञात शक्ति विशेष को नहीं।
जयाचार्य ने चौबीसी के अनेक स्थलों पर अर्हत् भक्ति के महत्त्व को दर्शाया है, यथा-विघ्नमिटै स्मरण किया", मिटै करम भरम मोह जाल हो, मेटण भव
१७२ / लोगस्स-एक साधना-१