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आत्मा के शत्रुओं का हनन करने वाले हैं परन्तु बाद वाली व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार मात्र तीर्थंकर परमात्मा को ही अरिहंत कहा जाता है, सामान्य केवली भगवान इस पद में नहीं आते।
अरिहंत बनने वाले तीर्थंकर भगवान भी सर्व कर्मों का क्षय होने पर यह अन्तिम मानव भव पूर्ण कर मोक्ष में जाते हैं तब उन्हें भी सिद्ध कहते हैं और तीर्थंकर पद पाए बिना पुण्डरीक स्वामी, जम्बु स्वामी, गौतम स्वामी आदि जो सर्व कर्म क्षय कर मोक्ष में जाते हैं तब उन्हें भी सिद्ध कहते हैं। इस तरह दोनों अवस्थाओं में सिद्ध बनने वालों को नमस्कार किया गया है। ये अरिहंत और सिद्ध इस तरह दोनों प्रकार के परमात्मा होते हैं। • अरिहंत (सर्वज्ञ) और तीर्थंकर में सामान्य अन्तर क्या है? १. अरिहंत संख्या में जघन्य २ करोड़ उत्कृष्ट ६ करोड़ होते हैं परन्तु तीर्थंकर ,
संख्या में जघन्य २० उत्कृष्ट १७० होते हैं। २. अरिहंत एक स्थान पर एक साथ कई हो सकते हैं पर तीर्थंकर एक स्थान
पर एक समय में एक ही होंगे। ३. अरिहंत भगवान के शरीर पर १००८ शुभ लक्षण की अनिवार्यता नहीं पर
तीर्थंकर भगवान के ये लक्षण अनिवार्यतः होते हैं। ४. अरिहंत पूर्व जन्म सम्यक्त्वी हो कोई नियम नहीं पर तीर्थंकर पूर्वजन्म में दो
भव से नियमतः सम्यक् दृष्टि होते हैं। ५. भरत, बाहुबलि, राम, हनुमान, लव, कुश, इन्द्रजीत, कुंभकरण आदि गृह
त्याग संन्यस्त हो अरिहंत बने तथा आदिनाथ (ऋषभ), अजित, यावत्,
महावीर तीर्थंकर बने। ६. तीर्थंकर पंच कल्याणक से युक्त होते हैं, अरिहंत नहीं। ७. चार अघाती कर्मों में तीर्थंकर के एक वेदनीय कर्म शुभ व अशुभ शेष तीन
कर्म एकान्त शुभ होते हैं। अरिहंत के चार अघाती कर्मों में एक आयुष्य कर्म शुभ, शेष तीन कर्म शुभ व अशुभ दोनों होते हैं।
इस प्रकार अनेक दृष्टियों से अरिहंत व तीर्थंकर में अन्तर* पाया जाता है पर दोनों के केवलज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। अनंत चतुष्ट्य से दोनों युक्त हैं, उसमें कोई अन्तर नहीं है।
लोगस्स में जो विशेषण दिये गये हैं वे तीर्थंकर अरिहंतों को लक्ष्य करके ही दिये गये हैं।
* विशेष जानकारी के लिए देखें तीर्थंकर चरित्र पृ./8, वीतराग वंदना, पृ./166-168
१५० / लोगस्स-एक साधना-१