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अन्तस्थित चेतना का ध्यान करें और स्वयं को तटस्थ बनाये रखने का अभ्यास करें। कहा भी है
चौदह रज्जू उतंग नभ, लोक पुरुष संठाण। तां मैं जीव अणादि तै, भरतमत है बिन ज्ञान ॥
लोक भावना
पाँच अनुनर विमान
अलोकाकाश
मध्य लोक
লাক্ষা
अधोलोक
पद दिव्यात्मक लोक
लोक का षट् द्रव्यात्मक स्वरूप समझने का सार यही है कि हम उस स्वरूप का चिंतन करें, जिस लोक में हम रह रहे हैं। जिन पुद्गलों के सहारे हम सुख-दुःख आदि का अनुभव करते हैं-ये सब पर हैं, पुद्गल हैं, जड़ हैं। लोक में चेतना सिर्फ जीव है। जीव भी अपनी सत्-असत् प्रवृत्तियों के कारण कर्मों का उपार्जन करता है और फिर वह कर्मों का फल भोगता है। जैसे बैलों के मुँह पर बारह घंटे छिंकी
लोगस्स एक धर्मचक्र-१ / १३७