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होता है । परन्तु मेरु पर्वत की तरह मनुष्य का मेरुदण्ड उर्ध्वगमन का प्रतीक है। मेरु पर्वत के ठीक मध्य में गोस्तन के आकार के आठ रूचक प्रदेश हैं । वहाँ से नव सौ योजन ऊपर और नव सौ योजन नीचे ऐसे १८०० योजन का मोटा एवं एक रज्जू असंख्य योजन का चौड़ा मध्य लोक है । ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा के असंख्य प्रदेश कर्म परमाणुओं से आच्छादित हैं । उनमें भी आठ रूचक प्रदेश होते हैं जो सदैव खाली रहते हैं अर्थात् इन प्रदेशों के ऊपर कभी कोई परमाणु का स्पर्श नहीं हुआ है। इन्हीं आठ रूचक प्रदेशों के कारण हमें स्वयं का बोध रहता है । सिद्धों के सम्पूर्ण आत्मप्रदेश कर्माणु रहित होते हैं । ये रूचक प्रदेश हमारे स्वाधिष्ठान चक्र में हैं । " मेरुपर्वत पर नंदनवन, सोमनसवन और पंडकवन की तरह हमारे मेरुदण्ड में स्वाधिष्ठान चक्र, अनाहचक्र, आज्ञा चक्र हैं। मेरुपर्वत पर मंदिर की तरह हमारे मेरुदण्ड पर मस्तिष्क रहा हुआ है ।
जैन दर्शनानुसार तीर्थंकरों के जन्म के समय शकेन्द्र पांच रूप बनाकर उन्हें पंडकवन में ले जाता है । वहाँ अभिषेक शिला पर उनका इन्द्र और देव अभिषेक महोत्सव मनाते हैं । कहा जाता है कि सौधर्म देव १००८ कलशों से क्षीर सागर के जल के द्वारा तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं । तीर्थंकर के शरीर में १००८ शुभ लक्षण होते हैं । श्रीवृक्ष आदि एक सौ आठ तो लक्षण होते हैं तथा तिल, मस आदि नव सौ व्यंजन होते हैं । अतएव इन्द्र १००८ नेत्रों से उनके दर्शन करता है और १००८ शुभ नामों से संबोधित कर उनकी स्तुति करता है । यही कारण है कि तीर्थंकरों के नाम से आगे श्री श्री श्री १००८ लगाया जाता है ।
परमात्मभाव
पंडनवन की तरह हमारा आज्ञा चक्र भृकुटि है । शिला भृकुटि मध्य है । हमारी पांच इन्द्रियां रूप पांच इन्द्र यहाँ इस महत्त्वपूर्ण स्थान पर शुभ भावों से परमात्मा का अभिषेक करती हैं । जब यहाँ की चेतना जागृत होती है, विकसित होता है अर्थात् जन्म-मरण की कर्म कषाय शुभ भावों के अभिषेक से धुल जाती है तब आत्मा का शुद्ध स्वरूप परमात्म भाव प्रकट होता है। ऐसा माना जाता है कि शरीर में भृकुटि के मध्य आत्मा का निवास है । इसलिए यहाँ टीका और बिंदी लगाने की प्रथा है। जब इस स्थान पर परमात्म भाव प्रकट होता है तो मैं (आत्मा) और मेरा ( मेरा शरीर तो उसके रहने का स्थान है) यह भेद - विज्ञान (सम्यक् ज्ञान) होने से सम्यक् दृष्टि का जागरण होता है ।
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लोक भावना
सम्पूर्ण विश्व, जो पुरुषाकृति है का चिंतन करना लोक भावना है। साधक लोक की विविधता का दर्शन कर और उसके हेतुओं का विचार कर अपनी
१३६ / लोगस्स - एक साधना - १