________________
प्रदायक और आरोग्य देता है। अतएव णमो सिद्धाणं पद का स्मरण अथवा 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' पद का जप करते समय उनके निर्मल स्वरूप का मन में चिन्तन करना चाहिए।
__जिस प्रकार नदी या सरोवर के तट पर स्थित व्यक्ति को जल की शीत लहर से ही शांति मिलती है, बगीचे की शीतल छाया और हरे-भरे वृक्षों के पास बैठने वालों की दृष्टि में तरावट व मस्तिष्क में शांति प्राप्त होती है। उसी प्रकार सिद्धों के स्वरूप का स्मरण, चिंतन, ध्यान स्तोता की ज्ञान चेतना को झंकृत और जागृत करता है। उसे अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हेतु चरणन्यास करने की बलवती प्रेरणा मिलती है।
यदि परमात्मा की भक्ति पर कोई परमात्मा नहीं बन सकता तो उसकी भक्ति का प्रयोजन ही क्या? आचार्य मानतुंग ने बहुत ही सारगर्भित बात कही
नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किंवा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति? अर्थात् हे जगत् के भूषण! हे जगत् के जीवों के नाथ! आपके यथार्थ गुणों के द्वारा आपका स्तवन करते हुए भक्त यदि आपके समान हो जाये तो हमें कोई अधिक आश्चर्य नहीं है, ऐसा तो होना चाहिए। क्योंकि स्वामी का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने आश्रित भक्त को अपने समान बना ले अथवा उस मालिक से लाभ ही क्या जो अपने आश्रित को वैभव से अपने समान नहीं बना लेता? इसी तथ्य को कबीर की साखी में भी दर्शाया गया है
सबै रसाइया मैं किया, हरि सा ओर न कोई।
तिल इक घट में संचरै, तो सब तन कंचन होई ॥ अर्थात् सभी रसायनों का सेवन कर लिया है मैंने, मगर हरि रस जैसी कोई ओर रसायन नहीं पाई, एक तिल भी घट में, शरीर में यह पहुँच जाए, तो वह सारा ही कंचन में बदल जाता है। कहने का तात्पर्य है हरि रसायन से वासनाओं का मैल नष्ट हो जाता है और जीवन अत्यन्त निर्मल हो जाता है।
श्रीमज्जयाचार्य ने चौबीसी में अनेक स्थलों पर अर्हत् भक्ति के महत्त्व को दर्शाया है। उन्होंने भगवान श्री चन्द्रप्रभु की स्तुति में कहा-प्रभु तुम सही अर्थ में वीतराग हो। जो अपने चित्त को एकाग्र बना तुम्हारा ध्यान करते हैं वे परम
लोगस्स स्वरूप मीमांसा / १२१ .