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सरलता से और क्षणमात्र में भलिभांति बन जाता है। इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है। यह आज के विज्ञान के जगत् में देखा जा रहा है।
इसी प्रकार आध्यात्मिक विद्या के नियमानुसार पृथक-पृथक स्वभाव वाले वर्णों अथवा अक्षरों का उनकी सामर्थ्य को भलिभांति जानने वाले योगीजन विशिष्ट रीति से मिलान कर देते हैं तो उसमें विद्युत शक्ति के अनुसार किसी अगम्य शक्ति का संचार हो जाता है। उसी शक्ति के द्वारा साधक अपना अभिष्ट कार्य सरलता से सिद्ध कर लेता है।
___ लोगस्स की देह-संरचना में ऐसे माधुर्य व्यंजक वर्गों का विन्यास एवं विनियोग है जिससे श्रुति मधुरता की सृष्टि हो, रसोत्कर्ष हो, वस्तु की प्रभावशीलता हो, ओज गुण की स्थिति हो। वर्ण-विन्यास, वाक्य-रचना, अभिव्यक्ति, सौष्ठव, मंत्रात्मकता इत्यादि अनेक कारणों से यह स्तव अभिप्रिय और सतत स्मरणीय रहा है। काल का अन्तराल इसे कभी व्यवहित नहीं कर सका। सचमुच यह अमृत रसायन स्वरूप है। इसकी बाह्य देह संरचना में निर्मित ऐसे कुछ महत्त्वपूर्ण वर्ण विन्यास जो चामत्कारिक ढंग से प्रयुक्त हैं जिनके कुछ नमूने उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये जा रहे हैं१. माधुर्य व्यंजक वर्ण विन्यास वक्रता
माधुर्य व्यंजक वर्ण विन्यास से पूर्व विन्यास वक्रता को समझ लेना अपेक्षित है। वर्ण विन्यास वक्रता को परिभाषित करते हुए ऐसा कहा गया है-वर्णों का ऐसा विनियोग जिसे श्रुति मधुरता (नाद-सौन्दर्य) की सृष्टि हो, रसोत्कर्ष हो, वस्तु की प्रभावशीलता कोमलता, कठोरता, कर्कशता आदि की व्यंजना हो, शब्द अर्थ में सामंजस्य स्थापित हो, भाव-विशेष पर बलाधान हो तथा अर्थ का विशदीकरण हो, वह वर्ण विन्यास वक्रता कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि-जब एक, दो या अनेक वर्णों की आवृत्ति व्यवधान पूर्वक या व्यवधान रहित हो, उसे वर्ण विन्यास वक्रता कहते हैं।
माधुर्य व्यंजक वर्णों की आवृत्ति युक्त या आवृत्ति रहित प्रयोग से माधुर्य की व्यंजना होती है। चित्त या अन्तःकरण आनंद से द्रवित हो जाता है। चित्त का द्रवीभूत बनाने वाले आह्लाद को ही माधुर्य की संज्ञा से अभिव्यक्त किया गया है। वर्ण, सानुनासिक वर्ण तथा छोटे-छोटे समासों के प्रयोग से माधुर्य की उत्पत्ति होती है। आचार्य मम्मट ने माधुर्य व्यंजक वर्णों का निर्देश दिया है, जो निम्न प्रकार से उपलब्ध है
लोगस्स देह संरचना के रहस्य / ६१