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अशुद्ध यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- यावत् अनेक चतुरशीति-नोचतुरशीति समर्जित भी हैं ? गौतम! जो नैरयिक चौरासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे चतुरशीति समर्जित हैं जो नैरयिक जघन्यतः एक, दो, तीनउत्कृष्टतः तिरासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे नोचतुरशीति समर्जित हैं। जो नैरयिक चौरासी तथा अन्य जघन्यतः एक- दो• तीन उत्कृष्टतः तिरासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे चतुरशीति-नोचतुरशीति समर्जित हैं। जो नैरयिक अनेक चौरासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक चतुरशीति समर्जित हैं जो नैरयिक अनेक चौरासी तथा अन्य जघन्यतः एक, दो, तीनउत्कृष्टतः तिरासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक चतुरशीति-नोचतुरशीति समर्जित हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - यावत् अनेक चतुरशीति नोचतुरशीति समर्जित भी हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। पृथ्वीकायिक की अंतिम दो विकल्पों की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-चौरासी अभिलाप्य है। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता । द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिकों की नैरयिक की भांति वक्तव्यता ।
की भांति ।
शतक २०
अशुद्ध
३० ३२४-४८ पृथक्त्व वर्ष अधिक दो सागरोपम तथा तीसरे और छट्ठे गमक में पूर्व-कोटि-अधिक सात सागरोपम, सातवें और आठवें गमक में पृथक्त्व वर्ष अधिक सात सागरोपम, नवें गमक में कोटि- पूर्व अधिक सात सागरोपम, उत्कृष्टतः सनत्कुमार की उत्कृष्ट स्थिति को चतुर्गुणित करने पर अट्ठाईस सागरोपम होती है, तथा मनुष्य के उत्कृष्ट काल का चतुर्गुणित करने पर पहले तीसरे, चौथे, छट्टे, सातवें और नवमें गमक में चार कोटि-पूर्व, दूसरे, पांचवें और आठवें गमक में चार पृथक्त्व वर्ष और अधिक जोड़ना चाहिए, इतना काल लगता है इतने काल तक गति आगति करता है।) माहेन्द्र देवलोक (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) उससे ( सनत्कुमार की स्थिति से) कुछ अधिक होने से कायसंवेध के काल में जघन्य काल में दो सागरोपम से कुछ अधिक और सात सागरोपम से कुछ अधिक सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए तथा उत्कृष्ट काल में चतुर्गुणित करने पर अट्ठाईस सागरोपम से कुछ अधिक अथवा आठ सागरोपम से कुछ अधिक सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, ब्रह्मदेव लोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) जघन्य काल में सात सागरोपम अथवा दस सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए तथा उत्कृष्ट काल में चालीससागरोपम (अथवा अट्ठाईस सागरोपम) सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, लान्तक देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) (जघन्य काल में दस सागरोपम अथवा चौदह सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए तथा उत्कृष्ट काल में) छप्पन सागरोपम (अथवा चालीस सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), महाशुक्र देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) ( जघन्य काल चौदह सागरोपम अथवा सत्रह- सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, उत्कृष्ट काल) अड़सठसागरोपम (अथवा छप्पन सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), सहस्रार देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप उत्पत्ति का कायसंवेध जघन्यकाल में सत्रह अथवा अठारह सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, उत्कृष्ट काल) बहत्तर - सागरोपम(अथवा अड़सठ सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), यह उत्कृष्टतः स्थिति बतलाई गई जघन्य स्थिति भी चतुर्गुणित करके वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् ईशानदेव की वक्तव्यता ।
शतक २४
३४२. यदि संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पज्वेन्द्रिय तिर्यग्योनिक सौधर्म देव में उपपन्न होते हैं? जिस प्रकार संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव के असुरकुमार देव में उपपद्यमान की भांति नव गमक (भ. २४/१३१,१३२,१३३) वैसे ही नौ गमक हैं, केवल इतना विशेष है-स्थिति और कायसंवेध यथोचित ज्ञातव्य हैं जब अपनी जघन्य काल की स्थिति उत्पन्न पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च यौगलिक सौधर्म देव के रूप में उपपन्न होता है तब तीनों ही गमकों (चौथे, पांचवें और छट्ठे) में जीव सम्यग्दृष्टि भी होता है, मिथ्या दृष्टि भी होता है, सम्यग् मिथ्या दृष्टि नहीं होता।
३४३. यदि मनुष्यों से सौधर्म-देव में उपपन्न होते हैं? भेद ज्योतिष्क देव में, (भ. २४ / ३३१) उपपद्यमान की भांति वक्तव्य हैं यावत्
शुद्ध
यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है यावत् (अनेक चतुरशीति और एक नोचतुरशीति) समर्जित भी हैं ?
गौतम! जो नैरयिक चतुरशीतिक प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक चतुरशीति समर्जित हैं। जो नैरयिक जघन्यतः एक, दो, तीन, उत्कर्षतः त्र्यशीतिक प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक नोचतुरशीति समर्जित हैं। जो नैर यिक चतुरशीतिकतथा अन्य जघन्यतः एक, दो, तीन, उत्कर्षतः त्र्यशीतिक प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक चतुरशीति-नोचतुरशीतिसमर्जित हैं जो नैरयिक अनेक चतुरशीतिक प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक अनेक चतुरशीति समर्जित हैं। जो नैरयिक अनेक चतुरशीतिक तथा अन्य जघन्यतः एक, दो, तीन, उत्कर्षतः त्र्यशीतिक प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक अनेक चतुरशीति और एक नोचतुरशीति समर्जित हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् (अनेक चतुरशीति- और एक नोचतुरशीति - ) समर्जित भी हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार (वक्तव्य हैं)। पृथ्वीकायिक अंतिम दो विकल्पों की भांति (वक्तव्य हैं), इतना विशेष है-चतुरशीतिक अभिलाप्य है। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक (वक्तव्य हैं) । द्वीन्द्रिय यावत् यावत् वैमानिक नैरयिकों की भांति (वक्तव्य हैं) ।
शुद्ध
की भांति, लेश्या - सनत्कुमार माहेन्द्र और ब्रह्मलोक देवों में एक पद्म लेश्या, शेष देवों में एक शुक्ल लेश्या वेद-वे स्त्री-वेद वाले नहीं होते, पुरुष वेद वाले होते हैं, नपुंसक वेद वाले नहीं होते। आयुष्य और अनुबन्ध स्थिति पद (पण्णवणा, पद ४) की भांति (वक्तव्य हैं)। शेष ईशान देव की भांति तथा कायसंवेध यथोचित ज्ञातव्य हैं।
पृथक्त्व-वर्ष अधिक दो सागरोपम, तीसरे और छट्टे गमकों में कोटि- पूर्व-अधिक सात सागरोपम, सातवें और आठवें गमकों में पृथक्त्व-वर्ष - अधिक-सात-सागरोपम, नवें गमक में कोटि- पूर्व अधिक सात सागरोपम, उत्कर्षतः सनत्कुमार की उत्कृष्ट स्थिति को चतुर्गुणित करने पर अट्ठाईस सागरोपम होती है, (मनुष्य के उत्कृष्ट काल का चतुर्गुणित करने पर पहले तीसरे, चौथे, छट्ठे, सातवें और नवें गमकों में चार कोटि-पूर्व, दूसरे, पांचवें और आठवें गमकों में चार पृथक्त्व वर्ष और अधिक जोड़ना चाहिए, इतना काल लगता हैं, इतने काल तक गति आगति करता है।) माहेन्द्र देवलोक (के देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) उससे (सनत्कुमार की स्थिति से) कुछ अधिक होने से कायसंवेध के काल में जघन्य काल में दोसागरोपम से कुछ अधिक और सात सागरोपम से कुछ अधिक सहित पूर्ववत् (बतलाना चाहिए) तथा उत्कृष्ट काल में चतुर्गुणित करने पर अट्ठाईस सागरोपम से कुछ अधिक अथवा आठ-सागरोपम से कुछ अधिक सहित पूर्ववत् (बतलाना चाहिए), ब्रह्म देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) जघन्य काल में सात सागरोपम अथवा दससागरोपम सहित पूर्ववत् (बतलाना चाहिए) तथा उत्कृष्ट काल में चालीस सागरोपम (अथवा अट्ठाईस सागरोपम) सहित पूर्ववत् (बतलाना चाहिए), लान्तक देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) ( जघन्य काल में दससागरोपम अथवा चौदह सागरोपम सहित पूर्ववत् (बतलाना चाहिए) तथा उत्कृष्ट काल में) छप्पन सागरोपम (अथवा चालीस सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), महाशुक्र देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) ( जघन्य काल में चौदह सागरोपम अथवा सत्रह - सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए। उत्कृष्ट काल में) अड़सठ - सागरोपम (अथवा छप्पन सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), सहस्रार देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध जघन्य काल में सत्रह अथवा अठारह सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, उत्कृष्ट काल में) बहत्तर - सागरोपम (अथवा अड़सठ सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), यह उत्कर्षतः स्थिति बतलाई गई । जघन्य स्थिति भी चतुर्गुणित करके (वक्तव्य है)।
३४२. यदि संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञि पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीव सौधर्म देव में उपपन्न होते हैं०? असुरकुमारों में उपपद्यमान संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञि तिर्यग्योनिक जीव के नव गमक जिस प्रकार (बतलाए गए हैं, उसी प्रकार (भ. २४ / १३१, १३२,१३३) नौ ही गमक (वक्तव्य हैं), इतना विशेष है स्थिति और कायसंवेध यथोचित ज्ञातव्य हैं। जब अपनी जघन्य काल की स्थिति में उत्पन्न पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च यौगलिक सौधर्म देव के रूप में उपपन्न होता है तब तीनों ही गमकों (चौथे, पांचवें और छट्ठे) में जीव सम्यग्दृष्टि भी होता है, मिथ्या दृष्टि भी होता है, सम्यग् मिथ्या-दृष्टि नहीं होता (सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा) दो ज्ञान नियमतः और ( मिथ्या दृष्टि की अपेक्षा) दो अज्ञान नियमतः होते हैं। शेष पूर्ववत् ।
३४३. यदि मनुष्यों से सौधर्म देव में उपपत्र होते हैं०? भेद ज्योतिष्क- देवों में उपपद्यमान (भ. २४ / ३३१) की भांति (वक्तव्य है) यावत्