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श. ४१ : उ. १,२ : सू. १५-२६
भगवती सूत्र से उत्पन्न नहीं होत, आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं। १६. यदि ये जीव आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं तो क्या आत्म-यश का जीवन जीते हैं?
अथवा आत्म-अयश का जीवन जीते हैं। गौतम! वे आत्म-यश का जीवन भी जीते हैं, आत्म-अयश का जीवन भी जीते हैं। १७. यदि ये जीव आत्म-यश का जीवन जीते हैं, तो क्या वे सलेश्य हैं? अथवा अलेश्य हैं?
गौतम! वे जीव सलेश्य भी है, अलेश्य भी हैं। १८. यदि ये जीव हैं तो क्या क्रिया-सहित हैं? अथवा क्रिया-रहित हैं?
गौतम! वे जीव क्रिया-सहित नहीं हैं, क्रिया-रहित हैं। १९. यदि ये जीव क्रिया-रहित है तो कया उसी भव में सिद्ध होते हैं? यावत् सभी दुःखों का
अन्त करते हैं? हां, उसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं। २०. यदि वे जीव सलेश्य हैं तो क्या क्रिया-सहित हैं? अथवा क्रिया-रहित है।
गौतम! वे जीव क्रिया-सहित हैं, क्रिया-रहित नहीं हैं। २१. यदि ये जीव क्रिया-सहित हैं तो क्या उसी भव में सिद्ध होते हैं? यावत् सभी दुःखों का
अन्त करते हैं? गौतम! उनमें से कुछेक जीव उसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं, कुछेक जीव उसी भव में सिद्ध नहीं होते हैं यावत् सभी दुःखों का अन्त नहीं करते। २२. यदि ये जीव आत्म-अयश का जीवन जीते हैं तो क्या सलेश्य हैं? अथवा अलेश्य हैं?
गौतम! वे जीव सलेश्य हैं, अलेश्य नहीं हैं। २३. यदि ये जीव सलेश्य हैं तो क्या क्रिया-सहित हैं? अथवा क्रिया-रहित हैं?
गौतम! वे जीव क्रिया-सहित हैं, क्रिया-रहित नहीं हैं। २४. यदि ये जीव क्रिया-सहित हैं तो क्या उसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सभी दुःखों का
अन्त करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। राशियुग्म-कृतयुग्म-वानमन्तर, -ज्यौतिषिक और- वैमानिक-देवों के विषय में वैसा ही बतलाना चाहिए जैसा राशियुग्म-कृतयुग्म-नैरयिक-जीवों के विषय में
बतलाया गया था। (भ. ४१।३-१४) २५. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है।
दूसरा उद्देशक २६. भन्ते! राशियुग्म-त्र्योज-नैरयिक-जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं? उसी प्रकार पूरा उद्देशक बतलाना चाहिए, केवल इतना अन्तर है-इन जीवों का परिमाण तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्येय अथवा असंख्येय होता है। इन जीवों के अन्तर-सहित उपपन्न होने के विषय में वैसा ही बतलाना चाहिए जेसा प्रथम उद्देशक (भ. ४१।५) में बतलाया गया है।
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