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भगवती सूत्र
श. २६ : उ. ११ : सू. ५५,५६ गौतम ! प्रथम और तृतीय - दो भंग वक्तव्य है । (सलेश्य आदि) सर्व पदों में भी इसी प्रकार वक्तव्यता । नैरयिकों में प्रथम और तृतीय भंग की वक्तव्यता । इतना विशेष है - सम्यग् - मिथ्या- दृष्टि में तृतीय भंग वक्तव्य है । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों की वक्तव्यता । अचरम पृथ्वीकायिक-, अप्कायिक- और वनस्पतिकायिक- जीव के तेजोलेश्या में केवल तृतीय भंग की वक्तव्यता । (अचरम पृथ्वीकायिक- अप्कायिक- और वनस्पतिकायिक-जीव के तेजो- लेश्या को छोड़ कर ) शेष सभी पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग की वक्तव्यता । अचरम तेजस्कायिक- और वायुकायिक- जीव में सर्वत्र प्रथम और तृतीय - ये दो भंग वक्तव्य हैं । अचरम द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में पूर्ववत् वक्तव्यता । इतना विशेष है - सम्यक्त्व, औधिक, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुत ज्ञान - इन चारों ही पदों में तृतीय भंग की वक्तव्यता । अचरम पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक के सम्यग् - मिथ्या दृष्टि- पद में तृतीय भंग की वक्तव्यता । शेष सभी पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग की वक्तव्यता । अचरम मनुष्य में सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि, अवेदक और कषाय-रहित (इन तीन पदों में) तृतीय भंग की वक्तव्यता, अलेश्य, केवल - ज्ञानी और अयोगी ( इन तीन पदों की विवक्षा यथोचित नहीं है।) शेष पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग की वक्तव्यता । वानमन्तर, ज्योतिषिकऔर वैमानिक - देव में अचरम-नैरयिक (भ. २६/५५) की भांति वक्तव्यता । अचरम - नैरयिक आदि सभी सभी जीवों में नाम, गोत्र- और अन्तराय-कर्म के बन्ध में ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध की भांति निरवशेष वक्तव्यता ।
५६. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुये विहरण कर रहे हैं।
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