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श. २६ : उ. ११ : सू. ५०-५५
ग्यारहवां उद्देशक
भगवती सूत्र
( अचरम का बन्धाबन्ध)
५०. भन्ते ! अचरम-नैरयिक जो पुनः वही भव प्राप्त करेगा उसने क्या पाप कर्म का बन्ध
किया था......? पृच्छा । (भ. २६ / १ )
गौतम ! कोई अचरम - नैरयिक-जीव ने इसी प्रकार जैसे पहले उद्देशक में (भ. २६ / १-२८) प्रथम, द्वितीय दो भंग की सर्वत्र वक्तव्यता यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक । ५१. भन्ते अचरम - मनुष्य ने पाप कर्म का बन्ध किया था.....? पृच्छा । (भ. २६ / १) गौतम ! कोई अचरम- मनुष्य ने पाप कर्म का बन्ध किया था, कर रहा है, करेगा, कोई अचरम-मनुष्य ने पाप कर्म का बन्ध किया था कर रहा है, नहीं करेगा, कोई अचरम - मनुष्य पाप-कर्म का बन्ध किया था, नहीं कर रहा है, नहीं करेगा।
५२. भन्ते ! सलेश्य - अचरम मनुष्य ने क्या पाप कर्म का बन्ध किया था...? इसी प्रकार अन्तिम भंग छोड़ कर पहले तीन भंग की वक्तव्यता । इसी प्रकार जैसे प्रथम उद्देशक की भांति वैसे ही बतलाना चाहिए, केवल इतना विशेष है - जिन बीस पदों में वहां (भगवती, शतक छब्बीस, उद्देशक पहला, सूत्र संख्या २, ३, ६, ७, ८, १०, ११, १२, १४, १५ में) चार भंग बतलाये गए थे, उन पदों में से यहां (अचरम - मनुष्य में ) चरम भंग छोड़कर पहले तीन भंग वक्तव्य हैं। अलेश्य-, केवलज्ञानी- और अयोगी - मनुष्य - इन तीनों पदों में अचरम- मनुष्य की पृच्छा अपेक्षित नहीं है, शेष पूर्ववत् (भ. २६ / ३, ५, ६, ९, १०, ११, १२, १३) । अचरम वानमन्तर-, ज्योतिषिक-, वैमानिक देवों की नैरयिक की भांति (भ. २६/५०) वक्तव्यता । ५३. भन्ते ! अचरम - नैरयिक जीव ने क्या ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया था...? पृच्छा । (भ. २६ /१८)
गौतम ! इसी प्रकार अचरम - नैरयिक के पाप-कर्म-बन्ध की भांति (भ. २६ / ५०) वक्तव्यता, इतना विशेष है - कषाय- सहित- और लोभ - कषाय- सहित - अचरम - मनुष्य में प्रथम और द्वितीय भंग वक्तव्य हैं। शेष अट्ठारह पदों में चरम भंग को छोड़ कर पहले तीन भंग वक्तव्य हैं, शेष पूर्ववत् यावत् वैमानिक - देवों की वक्तव्यता (भ. २६ / ५०-५२) । दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के विषय में भी इसी प्रकार निरवशेष वक्तव्यता । वेदनीय कर्म के बन्ध में सर्वत्र ही प्रथम - द्वितीय दो भंग की वक्तव्यता यावत् वैमानिक - देव, इतना विशेष है - मनुष्य में अलेश्य, केवली और अयोगी - इन तीन की वक्तव्यता अपेक्षित नहीं है ।
५४. भन्ते ! अचरम - नैरयिक-जीव ने क्या मोहनीय कर्म का बन्ध किया था.....? पृच्छा । (भ. २६ / २१)
गौतम! अचरम - नैरयिक- जीव के मोहनीय कर्म के बन्ध के विषय में जैसे पाप कर्म की वक्तव्यता है, (भ. २६ / ५०-५३) वैसे ही निरवशेष वक्तव्य यावत् वैमानिक |
५५. भन्ते ! अचरम - नैरयिक जीव ने क्या आयुष्य-कर्म का बन्ध किया था? पृच्छा । (भ. २६ / १ )
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