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भगवती सूत्र
श. २५ : उ. ७ : सू. ५६९-५७३ द्वारा दी जाने वाली वस्तु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। १६. असंसृष्ट-चरक–अलिप्त-न सने हुए हाथ आदि से दाता द्वारा दी जाने वाली वसतु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। १७. तज्जात-संसृष्ट-चरक–दी जाने वली वस्तु की अविरोधी वस्तु से लिप्त हाथ आदि के द्वारा दी जाने वाली वस्तु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। १८. अज्ञात-चरक स्वयं का परिचय न देते हुवे वस्तु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। १९. मौन-चरक-मौन रह कर वस्तु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। २०. शुद्धैषणिक शुद्ध एषणा अर्थात् शंका-आदि-दोष-रहित वस्तु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। (वैकल्पिक अर्थ-शद्ध अर्थात व्यञ्जन आदि से रहित केवल कर आदि धान्य को लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला) २१. संख्यादत्तिक-निर्धारित संख्या में दत्तियों दी जाने वाली वस्तु के लेने का अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षाचर्या करने वाला। यह है भिक्षाचर्या। ५७०. रस-परित्याग क्या है?
रस-परित्याग अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे-१. निर्विकृतिक-विकृति का त्याग करने वाला। २. प्रणीतरस-त्याग-प्रणीत रस का वर्जन करने वाला। ३. आयंबिल–अम्लपानी के साथ एक धान्य का आहार करने वाला। ४. आयाम-सिक्थ-भोजी-धान्य के धोवण के साथ अन्न का आहार करने वाला ५. अरस आहार-रस-रहित भोजन करने वाला। हींग, नमक आदि मसालों से रहित भोजन करना। जैसे–चना, चावल, कुल्माष आदि। ६. विरस आहार-पुराने धान्य का आहार करने वाला। पुरानेपन के कारण रस समाप्त हो जाता है। ७. अन्त्य आहार-नीरस आहार, जघन्य धान्य का आहार करने वाला। जैसे-उड़द, मोथिया, कुल्माष आदि। ८. प्रान्त्य आहार-ठण्डा आहार करने वाला। ९. रूक्ष
आहार-रूखा आहार करना। यह है रस-परित्याग। ५७१. कायक्लेश क्या है?
कायक्लेश अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-१. स्थानायतिक-ऊर्ध्व-कायोत्सर्ग करने वाला। २. उत्कटुकासनिकः-उकडू बैठने वाला ३. प्रतिमास्थायी प्रतिमाकाल में कायोत्सर्ग की मुद्रा में अवस्थित। ४. वीरासनिक वीरासन की मुद्रा में अवस्थित ५. नैषधिक-बैठ कर किए जाने वाले आसन का प्रयोक्ता। ६. आतापक-शीत आदि से देह को अभ्यस्त बनाने वाला ७. अप्रावृतक-वस्त्र-त्याग करने वाला। ८. अकण्डूयक-खाज न करने वाला ९. अनिष्ठीवक-थूकने का त्याग करने वाला १०. सर्व-गात्र-परिकर्म-विभूष-विप्रमुक्त-सर्व-गात्र-परिकर्म-विभूषा का वर्जन। यह है कायक्लेश। ५७२. प्रतिसंलीनता क्या है? प्रतिसंलीनता चार प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे-१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता २. कषाय-प्रतिसंलीनता ३. योग-प्रतिसंलीनता ४. विविक्त-शयनासन-सेवना। ५७३. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता क्या है?
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