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श. २० : उ. ६ : सू. ४७-५०
भगवती सूत्र ४७. भंते! पृथ्वीकायिक-जीव सौधर्म-, ईशान-, सनत्कुमार-, माहेन्द्र-कल्पों के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर जो भव्य शर्कराप्रभा-पृथ्वी में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार सनत्कुमार-, माहेन्द्र-, ब्रह्मलोक-कल्प के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार ब्रह्मलोक-, लांतक-कल्प के बीच समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार लांतक-महाशुक्र-कल्प के बीच में समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार महाशुक्र-, सहस्रार-कल्प के बीच में समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार सहस्रार-, आनत-, प्राणत-कल्पों के बीच समवहत हआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार आनत-, प्राणत-, आरण-, अच्युत-कल्पों के बीच में समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार आरण, अच्युत, ग्रैवेयक-विमानों के बीच समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार ग्रैवेयक-विमानों और अनुत्तर-विमानों के बीच समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। इसी प्रकार अनुत्तर-विमानों, ईषत्-प्राग्भारा के बीच समवहत हुआ, पुनः यावत् अधःसप्तमी में उपपात होता है। ४८. भंते! अप्कायिक-जीव इस रत्नप्रभा- और शर्कराप्रभा-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर जो भव्य सौधर्म-कल्प में अप्कायिक के रूप में उपपन्न होता है, शेष..... इस प्रकार पृथ्वीकायिक की भांति यावत् इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है। इस प्रकार प्रथम और द्वितीय (कल्पों) के बीच समवहत होता है यावत् ईषत्-प्राग्भारा में उपपात होता है। इस प्रकार इस क्रम से यावत् तमा- और अधःसप्तमी-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर यावत् ईषत्-प्राग्भारा में अप्कायिक के रूप में उपपात होता है। ४९. भंते! अप्कायिक-जीव सौधर्म-, ईशान-, सनत्कुमार- और माहेन्द्र-कल्पों के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर जो भव्य इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में घनोदधि-घनोदधि-वलय में अप्कायिक-जीव के रूप में उपपन्न होता है? शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार इन्हीं कल्पों के बीच समवहत हुआ यावत् अधःसप्तमी-पृथ्वी के घनोदधि-घनोदधि-वलय में अप्कायिक जीव के रूप में उपपात होता है। इसी प्रकार यावत् अनुत्तर-विमानों एवं ईषत्-प्राग्भारा-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ यावत् अधःसप्तमी-पृथ्वी में घनोदधि-घनोदधि-वलय में उपपात होता है। ५०. भंते! वायुकायिक-जीव इस रत्नप्रभा- और शर्कराप्रभा-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर जो भव्य सौधर्म-कल्प में वायुकायिक जीव के रूप में उपपन्न होता है? इस प्रकार सतरहवें शतक के वायुकायिक-उद्देशक (भ. १७/७८-८०) की भांति यहां भी वक्तव्यता, इतना विशेष है-अंतरों (बीच) में समवहत ज्ञातव्य है। शेष पूर्ववत् यावत् बीच में समवहतता ज्ञातव्य है, शेष पूर्ववत् यावत अनुत्तर-विमानों और ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के
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