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भगवती सूत्र
श. २० : उ. ५,६ : सू. ३८-४६ ३८. भंते! द्रव्य-परमाणु कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे–अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य । ३९. भंते! क्षेत्र-परमाणु कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश, अविभाजित । ४०. भंते! काल-परमाणु कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? ___ गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श । ४१. भंते! भाव-परमाणु कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् और स्पर्शवान् । ४२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे।
छठा उद्देशक
पृथ्वी-आदि का आहार-पद ४३. भंते! पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा- और शर्कराप्रभा-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर जो भव्य सौधर्म-कल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है, भंते! क्या वह पहले उपपन्न होता है, पश्चात् आहार करता है? पहले आहार करता है, पश्चात् उपपन्न होता है? गौतम! पहले उपपन्न होता है, पश्चात् आहार करता है-इस प्रकार सतरहवें शतक के छठे उद्देशक (भ. १७/६७,६८) की भांति वक्तव्यता यावत् गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है पहले यावत् उपपन्न होता है। इतना विशेष है-वहां संप्राप्ति है, यहां आहार की वक्तव्यता है। शेष पूर्ववत्। ४४. भंते! पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा- और शर्कराप्रभा-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ, समवहत होकर जो भव्य ईशान-कल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है? पूर्ववत्। इस प्रकार यावत् ईषत्-प्राग्भारा में उपपन्न होता है। ४५. भंते! पृथ्वीकायिक-जीव शर्कराप्रभा- और बालुकाप्रभा-पृथ्वी के बीच समवहत हुआ। समवहत होकर जो भव्य सौधर्म यावत् ईषत्-प्राग्भारा में, इसी प्रकार इस क्रम से यावत् तमा- और अधःसप्तमी-पृथ्वी के बीच समवहत होकर जो भव्य सौधर्म यावत् ईषत्
-प्राग्भारा में उपपन्न होता है। ४६. भंते! पृथ्वीकायिक-जीव सौधर्म-, ईशान-, सनत्कुमार-, माहेन्द्र-कल्पों के बीच
समवहत हुआ। समवहत होकर जो भव्य इसी रत्नप्रभा-पृथ्वी में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न हुआ, भंते! वह क्या पहले उपपन्न होता है, पश्चात् आहार करता है? शेष पूर्ववत् यावत् इस अपेक्षा से यावत् निक्षेप ।
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