________________
भगवती सूत्र
श. १९ : उ. ३ : सू. ३४, ३६
गौतम ! जैसे कोइ चातुरंत चक्रवर्ती राजा की चन्दन पीसने वाली दासी जो तरुणी, बलवती, युगवान्, युवती, स्वस्थ और सधे हुए हाथों वाली है। उसके हाथ, पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और उरू दृढ़ और विकसित हैं । सम-श्रेणी में स्थित दो तालवृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजाएं हैं, जो आंतरिक उत्साह-बल से युक्त है, लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है, छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल, मेधावी, निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह पीसने की वज्रमयी तीक्ष्ण शिला पर, वज्रमय तीक्ष्ण लोढ़े से, लाख के गोले के समान एक विशाल पृथ्वीकाय के पिण्ड को ग्रहण कर, बार बार इकट्ठा कर, बार बार पिण्डीकरण कर यावत् 'मैं इसे अभी पीस डालूंगी' - ऐसा विचार कर उसे इक्कीस बार पीस देती है, फिर भी गौतम ! कुछ पृथ्वीकायिक-जीवों का उस शिला और लोढ़े से स्पर्श होता है, कुछ पृथ्वीकायिक-जीवों का उस शिला और लोढ़े से स्पर्श नहीं होता । कुछ पृथ्वीकायिक-जीवों का उस शिला और लोढ़े से घर्षण होता है, कुछ पृथ्वीकायिक- जीवों का उस शिला और लोढ़े से घर्षण नहीं होता । कुछ पृथ्वीकायिक- जीव परितप्त होते हैं, कुछ पृथ्वीकायिक- जीव परितप्त नहीं होते। कुछ पृथ्वीकायिक- जीव मरते हैं, कुछ नहीं मरते। कुछ पृथ्वीकायिक- जीव पीसे जाते हैं, कुछ नहीं पीसे जाते । गौतम ! पृथ्वीकायिक- जीवों के शरीर की इतनी बड़ी अवगाहन। प्रज्ञप्त है।
पृथ्वीकायिक का वेदना - पद
३५. भंते! पृथ्वीकायिक- जीव आक्रांत होने पर किस प्रकार की वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है ?
गौतम! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्, युवा, स्वस्थ और सधे हुए हाथों वाला है। उसके हाथ, पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और उरू दृढ़ और विकसित हैं । सम-श्रेणी में स्थित दो ताल वृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजाएं हैं, चर्मेष्टक -पाषाण, मुद्गर और मुट्ठी के प्रयोगों से जिसके शरीर के पुट्टे आदि सुदृढ़ हैं, जो आंतरिक उत्साह-बल से युक्त है । लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है, छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल मेधावी, निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह वृद्धावस्था से जीर्ण, जरा से जर्जरित देह, आतुर, बुभुक्षित, पिपासित, दुर्बल, क्लांत पुरुष के मस्तक को दोनों मुट्ठियों से अभिहत करता है। गौतम ! उस पुरुष के दोनों मुट्ठियों से मस्तक के अभिहत होने पर वह पुरुष कैसी वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है ?
श्रमण आयुष्मन्! वह अनिष्ट वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है । गौतम ! पृथ्वीकायिक- जीव आक्रांत होने पर उस पुरुष की वेदना से अधिक अनिष्टतर, अकांततर, अप्रियतर, अशुभतर, अमनोज्ञतर और अमनोरमतर वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है ।
अप्कायिक- आदि का वेदना-पद
३६. भंते! अप्कायिक-जीव संघर्षण होने पर किस प्रकार की वेदना का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है ?
६६४