________________
भगवती सूत्र
श. १८ : उ. ७ : सू. १४२-१४८ इस प्रकार आयुष्मन्! मैं, तुम या अन्य कोई भी छद्मस्थ जो जिस वस्तु को नहीं जानता, नहीं देखता वह सब नहीं होता, इस प्रकार आप मानते हैं तो आपके लिए यह लोक बहुत बड़ा नहीं होगा। अज्ञात और अदृष्ट अस्तित्व नहीं होता। यह कहकर उन अन्ययूथिकों को प्रत्युत्तर दिया, प्रत्युत्तर देकर जहां गुणशिलक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान् महावीर को पंचविध अभिगम के द्वारा यावत् पर्युपासना
करने लगा। भगवान् द्वारा मद्दुक का प्रशंसा-पद १४३. अयि मढुक! श्रमण भगवान् महावीर ने मद्दुक को इस प्रकार कहा-सुष्ठुक है मद्दुक! तुमने उन अन्ययूथिकों को इस प्रकार कहा। साधु है मद्दुक ! तुमने उन अन्ययूथिकों को इस प्रकार कहा। मद्दुक! जो मनुष्य अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और अविज्ञात, अर्थ, हेतु, प्रश्न अथवा व्याकरण का बहुजन के मध्य आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन करता है वह अर्हतों की आशातना में वर्तन करता है, अर्हत्- प्रज्ञप्त धर्म की आशातना में वर्तन करता है, अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है वह केवलियों की आशातना करता है, केवलि-प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है, इसलिए सुष्ठु है मद्दुक ! तुमने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-साधु है मद्दुक! तुमने उन अन्ययूथिकों को इस
प्रकार कहा। १४४. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर श्रमणोपासक मद्दुक हृष्ट-तुष्ट हो गया। श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार कर न अति निकट, न अति दूर शुश्रूषा
और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करने लगा। १४५. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक मद्दुक को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा
यावत् परिषद् लौट गई। १४६. श्रमणोपासक मद्दुक श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने प्रश्न पूछे-पूछकर अर्थ को ग्रहण किया, ग्रहण कर उठने की मुद्रा में उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। १४७. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! श्रमणोपासक मद्दुक देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होगा? यह अर्थ संगत नहीं है, इस प्रकार जैसे शंख की वक्तव्यता वैसे ही मढुक की वक्तव्यता।
अरुणाभ में उपपन्न होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। विकुर्वणा में एक-जीव-संबंध-पद १४८. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव हजार रूपों की विक्रिया कर परस्पर एक-दूसरे के साथ युद्ध करने में समर्थ है? हां, समर्थ है।
६४७