________________
भगवती सूत्र
श. १८ : उ. ७ : सू. १३९-१४२
श्रमणोपासक मद्दुक से इस प्रकार कहा - 'मद्दुक ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय की प्रज्ञापना करते हैं जैसे- धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय । पूर्ववत् रूपि काय अजीव - काय का प्रज्ञापन करते हैं। मद्दुक ! यह इस प्रकार कैसे है ? श्रमणोपासक मद्दुक का समाधान पद
१४०. श्रमणोपासक मद्दुक ने अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा- हम इन्द्रिय-ज्ञानी मनुष्य परोक्ष वस्तु को कार्य के आधार पर जानते हैं। यदि उनके द्वारा कोई कार्य किया जाता है तो हम जानते-देखते हैं। जब उनके द्वारा कार्य नहीं किया जाता तो हम नहीं जानते, नहीं देखते। धर्मास्तिकाय आदि का कार्य हमारे प्रत्यक्ष नहीं है, इसलिए उन्हें नहीं जानते, नहीं देखते। १४१. अन्ययूथिकों ने श्रमणोपासक मद्दुक से इस प्रकार कहा - मद्दुक ! तुम कैसे श्रमणोपासक हो; जो इस अर्थ को नहीं जानते हो, नहीं देखते हो ?
१४२. श्रमणोपासक मद्दुक ने अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा - आयुष्मन् ! क्या वायु चल रही है ?
हां ।
आयुष्मन्! क्या तुम चलती हुई वायु के रूप को देखते हो ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
आयुष्मन् ! क्या नाक में गंध के पुद्गल आते हैं ?
हां ।
आयुष्मन् ! क्या तुम नाक में आने वाले गंध के पुद्गलों के रूप को देखते हो ? यह अर्थ संगत नहीं है ।
आयुष्मन् ! क्या अरणि-सहगत अग्निकाय है ?
हां है।
आयुष्मन् ! क्या तुम अरणि सहगत रूप को देखते हो ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
आयुष्मन् ! क्या समुद्र के पार रूप ?
हां हैं।
आयुष्मन् ! क्या तुम समुद्र के पार रूपों को देखते हो ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
आयुष्मन् ! क्या देवलोक में रूप हैं ?
हां हैं।
आयुष्मन् ! क्या तुम देवलोक के रूपों को देखते हो ? यह अर्थ संगत नहीं है ।
६४६