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भगवती सूत्र
श. १८ : उ. २: सू. ३८-४४
दूसरा उद्देशक शक्र का कार्तिक श्रेष्ठी नामक पूर्व-भव-पद ३८. उस काल और उस समय में विशाखा नाम की नगरी थी-वर्णक। बह-पुत्रिक
चैत्य-वर्णक। स्वामी समवसृत हुए यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में देवराज देवेन्द्र वज्रपाणी पुरन्दर शक्र इस प्रकार सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक (भ. १६/३३, ३/२७) की भांति दिव्ययान विमान से आए, इतना विशेष है-उनके आभियोगिक-देव भी थे यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि का प्रदर्शन कर यावत् उसी दिशा में लौट गए। ३९. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-तृतीय शतक (भ. ३/२८-३०) में ईशान की वक्तव्यता,
उसी प्रकार कूटागार दृष्टान्त, पूर्वभव पृच्छा यावत् अभिसमन्वागत किया है। ४०. अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम! उस काल और उस समय में इसी जंबूद्वीप द्वीप में, भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का नगर था-वर्णक। सहस्राम्रवन उद्यान वर्णक। उस हस्तिनापुर नगर में कार्तिक नाम का श्रेष्ठी रहता था आढय यावत बहजन के द्वारा अपरिभत। वणिकों में उसका आसन पहला था। एक हजार आठ वणिकों के बहुत से कार्यों, कारणों, सामुदायिक कर्तव्यों, मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों, रहस्यों और निश्चयों में उसका मत पूछा जाता था, पुनः-पुनः पूछा जाता था। वह मेढ़ी-प्रमाण, आधार, आलंबन और चक्षु तथा मेढ़ीभूत, प्रमाणभूत, आधारभूत, आलंबनभूत और चक्षुभूत था। एक हजार आठ वणिकों के स्वजन और कुटुम्ब का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषण) तथा आज्ञा देने में समर्थ, सेनापतित्व करता था, अन्य वणिकों से आज्ञा का पालन करवाता था। वह श्रमणोपासक जीव-अजीव को जानने वाला यावत् यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहा था। ४१. उस काल और उस समय में अर्हत् आदिकर मुनिसुव्रत सोलहवें शतक (भ. १६/
६७,६८) की भांति वक्तव्यता। यावत् समवसृत हुए, यावत् परिषद पर्युपासना करने लगी। ४२. कार्तिक श्रेष्ठी इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो गया। इस प्रकार ग्यारहवें शतक में
सुदर्शन (भ. ११/११६) की भांति घर से प्रतिनिष्क्रमण किया यावत् पर्युपासना की। ४३. अर्हत् मुनिसुव्रत ने उस विशालतम परिषद में कार्तिक श्रेष्ठी को धर्म कहा यावत् परिषद
लौट गई। ४४. कार्तिक श्रेष्ठी अर्हत् मुनिसुव्रत के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट होकर
उठा। उठकर अर्हत् मुनिसुव्रत को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! यह ऐसा ही है यावत् जैसा आप कह रहे हैं, इतना विशेष है-देवानुप्रिय! एक हजार आठ वणिकों को पूछूगा, ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करूंगा, उसके बाद मैं देवानुप्रिय के पास प्रव्रजित होऊंगा। देवानुप्रिय! जैसे सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
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