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श. १८ : उ. १ : सू. २५-३७
भगवती सूत्र
अभवसिद्धिक की भांति वक्तव्यता। २६. संज्ञी की आहारक की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार असंज्ञी की आहारक की भांति वक्तव्यता। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी-जीव-पद में, सिद्ध-पद में अचरम हैं, मनुष्य-पद-में एकवचन, बहुवचन में चरम हैं। २७. सलेश्य यावत् शुक्ल-लेश्या वाले की आहारक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष
है-जिसके जो है। अलेश्य की नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी की भांति वक्तव्यता। २८. सम्यग्-दृष्टि की अनाहारक की भांति वक्तव्यता। मिथ्यादृष्टि की आहारक की भांति वक्तव्यता। एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय को छोड़कर सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि स्यात् चरम हैं, स्यात् अचरम हैं। बहुवचन में चरम भी हैं, अचरम भी हैं। २९. संयत-जीव-पद एवं मनुष्य-पद की आहारक की भांति वक्तव्यता। असंयत की भी उसी प्रकार वक्तव्यता। संयतासंयत की आहारक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसके जो है। नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत की नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक
की भांति वक्तव्यता। ३०. सकषायी यावत् लोभ-कषायी की सब स्थानों में आहारक की भांति वक्तव्यता।
अकषायी-जीव-पद, सिद्ध में चरम नहीं है, अचरम है। मनुष्य-पद में स्यात् चरम है, स्यात् अचरम है। ३१. ज्ञानी की सर्वत्र सम्यग्-दृष्टि की भांति वक्तव्यता। आभिनिबोधिक-ज्ञानी यावत् मनःपर्यव-ज्ञानी की आहारक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिनके जो है। केवलज्ञानी की नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी की भांति वक्तव्यता। अज्ञानी यावत् विभंग-ज्ञानी की
आहारक की भांति वक्तव्यता। ३२. सयोगी यावत् काययोगी की आहारक की भांति वक्तव्यता। जिसके जो योग है।
अयोगी की नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी की भांति वक्तव्यता। ३३. साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्त की अनाहारक की भांति वक्तव्यता। ३४. सवेदक यावत् नपुंसक-वेदक की आहारक की भांति वक्तव्यता, अवेदक की अकषायी
की भांति वक्तव्यता। ३५. सशरीरी यावत् कर्मक-शरीरी की आहारक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसके
जो है। अशरीरी की नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक की भांति वक्तव्यता। ३६. पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तक, पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्तक की आहारक की भांति वक्तव्यता। सर्वत्र एकवचन-बहुवचन में ये दण्डक वक्तव्य हैं। यह लक्षण गाथा हैजो जिस भाव को पुनः प्राप्त करता है, वह उस भाव से अचरम होता है। जिसका जिस भाव से अत्यन्त वियोग हो जाता है, वह उस भाव से चरम होता है। ३७. भंते! वह ऐसा ही होता है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे।